ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत

कोयलापेट्रोलीयमरसोई गैसकेरोसीनडीजल आदि ईंधन हैं। इनका उपयोग गैस स्टोवों (चूल्हों) तथा वाहनों में प्रत्यक्ष रूप से होता है। साथ ही ये विद्युत उत्पन्न करने के लिए भी प्रमुख स्त्रोत के रूप में उपयोग में लिए जाते हैं। विद्युत सयंत्रों में प्रतिदिन विशाल मात्रा में जीवाश्मी ईंधन का दहन करके जल उबालकर भाप बनाई जाती है। यह भाप टरबाइनों को घुमाकर विद्युत उत्पन्न करती है। ऐसे सयंत्रों को तापीय विद्युत संयंत्र कहा जाता है |

      1.जीवाश्म इंधन :-

    कोयला, पेट्रोलीयम, रसोई गैस, केरोसीन, डीजल आदि ईंधन हैं। इनका उपयोग गैस स्टोवों (चूल्हों) तथा वाहनों में प्रत्यक्ष रूप से होता है। साथ ही ये विद्युत उत्पन्न करने के लिए भी प्रमुख स्त्रोत के रूप में उपयोग में लिए जाते हैं। विद्युत सयंत्रों में प्रतिदिन विशाल मात्रा में जीवाश्मी ईंधन का दहन करके जल उबालकर भाप बनाई जाती है। यह भाप टरबाइनों को घुमाकर विद्युत उत्पन्न करती है। ऐसे सयंत्रों को तापीय विद्युत संयंत्र कहा जाता है क्योंकि इन सयंत्रों में ईंधन के दहन द्वारा ऊर्जा उत्पन्न की जाती है जिसे विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित किया जाता है।

    इस प्रकार के विद्युत में ईंधन की रासायनिक ऊर्जा पहले ऊष्मीय ऊर्जा में बदलती है, जो टरबाइन को घुमाने से यांत्रिक ऊर्जा (गतिज ऊर्जा) में परिवर्तित होती है जिनसे विद्युत जनरेटर द्वारा विद्युत ऊर्जा में बदलती है। ऊर्जा रूपांतरण के प्रत्येक पड़ाव पर ऊर्जा की कुछ मात्रा अनुपयोगी रूप में व्यय हो जाती है। जीवाश्म ईंधन से चलने वाले विद्युत सयंत्र केवल 40 प्रतिशत ही दक्ष होते है। जीवाश्म ईंधन को जलाने की अन्य हानिया भी हैं। जीवाश्मी ईंधन के जलने पर कार्बन, नाइट्रोजन तथा सल्फर के ऑक्साइड मुक्त होते हैं। इन अम्लीय ऑक्साइड से अम्लीय वर्षा होती है जो जल व स्मारकों को प्रभावित करती हैं।

    2.जल-विद्युत संयंत्र:-

    ऊर्जा का एक अन्य पारंपरिक स्त्रोत बहते जल की गतिज ऊर्जा या ऊँचाई पर स्थित जल की स्थितिज ऊर्जा है। गिरते हुए जल की स्थितिज ऊर्जा को गतिज ऊर्जा में बदलकर टरबाइन पर डाला जाता है। इस टरबाइन की यांत्रिक ऊर्जा विद्युत जनरेटर को दी जाती है और अंततः विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित हो जाती है।

    जल विद्युत उत्पन्न करने के लिए नदियों के बहाव को रोककर बड़े जलाशयों (कृत्रिम झीलों) में जलएकत्रित करने के लिए ऊँचे-ऊँचे बाँध बनाए जाते हैं। इन जलाशयों में वर्षा के समय जल संचित होता रहता है। यह संचित जल बाँध के ऊपरी भाग से पाइपों द्वारा बाँध के आधार के पास लगे टरबाइन के ब्लेडों पर मुक्त रूप से गिरता है। फलस्वरूप टरबाइन की ब्लेड घूर्णन करती है और जनित्र द्वारा विद्युत उत्पादन होता है। जल विद्युत ऊर्जा एक नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोत है क्योंकि वर्षा के बाद जलाशय पुनः भर जाता है। बाँध निर्माण के साथ कई समस्याएँ भी जुड़ी इसमें बहुत से खेती योग्य भूमि तथा मानव आवास खूब जाते हैं। बहुत से परिस्थितिक तंत्र भी नष्ट हो जाते है।

    3.जैव मात्रा (बायो गैस):

    हमारे देश में कृषि एवं पशुपालन को विशेष महत्व दिया जाता है। यहाँ कृषि षि अपशिष्ट तथा पशुओं की बहुतायत होने के कारण गोबर भी सरलता से उपलब्ध है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी इन्हें सीधे जलाकर ऊर्जा प्राप्त करने का प्रचलन है। इससे ऊर्जा का एक बड़ा भाग प्रकृति में विलीन हो जाता है। ये ईंधन अधिक ऊष्मा उत्पन्न नहीं करते तथा इन्हें जलाने पर अत्यधिक धुंआ निकलता है। इसलिए इन ईंधनों की दक्षता में वृद्धि के लिए प्रौद्योगिकी का सहारा आवश्यक है।

    जब लकड़ी को वायु की सीमित मात्रा में जलाया जाता है तब उसमें से जल तथा वाष्पशील पदार्थ बाहर निकल जाते हैं और रह जाता है सिर्फ चारकोल चारकोल को जलाने पर हुआ नहीं होता और यह बिना ज्वाला के जलता है। इसकी ऊष्मा उत्पन्न करने की दक्षता भी अधिक होती है। गोबर, पादप अपशिष्ट और मल ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में अपघटित होकर बायो गैस (जैव गैस) बनाते हैं। बायो गैस, मीथेन, कार्बन डाई ऑक्साइड हाइड्रोजन तथा हाइड्रोजन सल्फाइड का मिश्रण है।

    बायो गैस संयंत्र में ईंटों से बनी गुंबद टंकी होती है जिसमें गोबर व जल का गाढ़ा घोल (slurry) बनाया जाता है। इसे संपाचित्र (digester) में डाल देते हैं जिसमें ऑक्सीजन नहीं होती। अवायवीय सूक्ष्मजीव, जिन्हें जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं होती, गोबर का अपघटन करते हैं। जैव गैस को संपाचित्र के ऊपर बनी टंकी में संचित किया जाता है। इसे पाइपों द्वारा बाहर निकाला जाता है। जैव गेस में 75 प्रतिशत मीथेन गैस होती है जो धुंआ उत्पन्न किए बिना जलती है और इसके जलने के पश्चात् राख जैसा कोई अपशिष्ट भी नहीं बचता है। जैव गैस का उपयोग प्रकाश के स्त्रोत के रूप में भी किया जाता है।

    4.पवन ऊर्जा:-

    सूर्य के विकिरणों द्वारा भूखंडों तथा जलाशयों के असमान तप्त होने के कारण वायु में गति उत्पन्न होती है और पवनों का प्रवाह होता है। पवनों की गतिज ऊर्जा का उपयोग पवन चक्कियों द्वारा यांत्रिक कार्यों को करने में होता है।

    उदाहरणतः पवन चक्कियों की पंखुड़ियों की घूर्णन की गति का उपयोग कुओं से जल खींचने के लिए होता है। आजकल पवन ऊर्जा का उपयोग विद्युत उत्पन्न करने के लिए भी हो रहा है। पवन चक्की की घूर्णी गति का उपयोग विद्युत जनित्र (जनरेटर) के टरबाइन को घुमाने के लिए किया जाता है। किसी विशाल क्षेत्र में बहुत सारी पवन चक्कियों लगाई जाती है जिसे पवन ऊर्जा फार्म कहते हैं। यह एक नवीकरणीय ऊर्जा का स्त्रोत है।

    ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोत

    बढ़ती प्रौद्योगिकी के कारण हमारी ऊर्जा की माँग में भी लगातार वृद्धि हो रही है। आवश्यक है कि हम उपलब्ध ऊर्जा स्त्रोतों के अधिक दक्ष उपयोग के लिए नई तकनीकें ढूँढते रहे और नए स्त्रोतों की भी खोज जारी रखें।

    1.सौर ऊर्जा:-

    भारत एक भाग्यशाली देश है क्योंकि वर्ष के अधिकांश दिनों में हमें सौर ऊर्जा प्राप्त होती है। सौर ऊर्जा का अर्थ धरती पर पड़ रहे सूर्य के प्रकाश और ऊष्मा से है। सूर्य ऊर्जा का विशाल स्रोत है। सूर्य ऊर्जा परम्परागत ऊर्जा स्त्रोतों से भिन्न है। सौर ऊर्जा के तत्काल रुपांतरण द्वारा विद्युत ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है।

    सौर तापन युक्तियाँ (Solar Heating Devices) :- वे युक्तियाँ जिनमें सौर ऊर्जा का अधिकाधिक संग्रह किया जा सके सौर तापन युक्तियाँ कहलाती हैं।

    क्रियाविधिः-

    A) दो शंकवाकार फ्लास्क लीजिए। इनमें से एक को काला तथा दूसरे को सफेद पेंट से पोतिए

    B) इन शंक्वाकार फ्लास्कों को एक से डेढ़ घंटे तक सीधे धूप में रखिए।

    C) दोनों फ्लास्कों को स्पर्श कीजिए इनमें कौन ज्यादा तप्त है। आप इन दोनों फ्लास्कों के जल के ताप तापमापी द्वारा भी माप सकते हैं।

    D) क्या आप कोई ऐसा उपाय सोच सकते है जिसके द्वारा इस ज्ञान का उपयोग अपने दैनिक जीवन में कर सके

    सोलर कुकर (Solar Cooker):-

    सोलर कुकर एक युक्ति है जिसे सूर्य द्वारा विकरित ऊष्मा ऊर्जा का उपयोग करके खाना पकाने के लिए प्रयोग किया जाता है। सोलर कुकर एक रोधी धातु या लकड़ी के बक्से का बना होता है। जो भीतर से पूर्णतः काले रंग का होता है। पकाए जाने वाले भोजन को धातु पात्रों में रखते हैं। जो बाहर से काले रंग के होते हैं। तत्पश्चात् धातु पात्रों को सौर कुकर बाक्से के अन्दर रखते हैं, और काँच शीट से ढंक देते हैं।

    एक बार सूर्य की ऊष्मा किरणें कुकर बक्से में प्रवेश कर जाती है, तो काँच का ढक्कन उन्हें वापस बाहर जाने नहीं देता है। इस तरह सूर्य की अधिकाधिक ऊष्मा किरणें बक्से में रोक ली जाती है जिसके कारण सौर कुकर बक्से में तापमान दो से तीन घण्टे में ही लगभग 100°C से अधिक बढ़ जाता है। यह ऊष्मा काले पात्रों में रखी भोजन सामग्रियों जैसे- चावल, दालों और सब्जियों को पकाने के लिए प्रयुक्त की जाती हैं।

    सौर सेल :- (Solar cell)

    यह सरलता से देखा जा सकता है कि ये युक्तियों दिन के कुछ निश्चित समयों पर ही उपयोगी होती हैं। सौर सेल, सौर ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में तत्काल रूपांतरित करते हैं। धूप में रखे जाने पर किसी सौर सेल से 0.5-1.0. V तक वोल्टता विकसित होती है तथा लगभग 0.7 W विद्युत उत्पन्न कर सकते हैं। जब बहुत अधिक संख्या में सौर सेलों को संयोजित करते हैं तो यह व्यवस्था सौर पैनल कहलाती है।जिनसे व्यावहारिक उपयोग के लिए पर्याप्त विद्युत प्राप्त हो जाती है।

    सौर सेलों में कोई भी गतिमान पुरजा नहीं होता. इनका रखरखाव सस्ता है तथा ये बिना किसी फोकसन युक्ति के काफी संतोषजनक कार्य करते हैं। सौर सेलों के उपयोग करने का एक अन्य लाभ यह है कि इन्हें सुदूर तथा अगम्य स्थानों में स्थापित किया जा सकता है। जहाँ विद्युत संचरण के लिए केबल बिछाना अत्यंत खर्चीला तथा व्यापारिक दृष्टि से व्यावहारिक नहीं होता। सौर सेल बनाने के लिए सिलिकॉन का उपयोग

    किया जाता है जो प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है परंतु सौर सेलों को बनाने में उपयोग होने वाले विशिष्ट श्रेणी के सिलिकॉन की उपलब्धता सीमित है। सौर सेलों के उत्पादन की समस्त प्रक्रिया अभी भी बहुत महंगी है। सौर सेलो को परस्पर संयोजित करके सौर पैनल बनाने में सिल्वर (चाँदी) का उपयोग होता है जिसके कारण लागत में और वृद्धि हो जाती है। उच्च लागत तथा कम दक्षता होने पर भी सौर सेलों का उपयोग बहुत से वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिक अनुप्रयोगों के लिए किया जाता है।

    A) मानव-निर्मित उपग्रहों तथा अंतरिक्ष अन्वेषक युक्तियों जैसे मार्स ऑर्बिटरों में सौर सेलों का उपयोग प्रमुख ऊर्जा स्रोत के रूप में किया जाता है।

    B) रेडियो अथवा बेतार संचार तंत्रों अथवा सुदूर क्षेत्रों के टी.वी. रिले केंद्रों में सौर सेल पैनल उपयोग किए जाते हैं।

    C) ट्रैफिक सिग्नलों, परिकलको तथा बहुत से खिलौनों में सौर सेल लगे होते हैं। सौर सेल पैनल विशिष्ट रूप से डिजाइन की गई छतों पर स्थापित किए जाते हैं ताकि इन पर अधिक से अधिक सौर ऊर्जा आपतित हो। लेकिन अत्यधिक महँगा होने के कारण सौर सेलों का घरेलू उपयोग अभी तक सीमित है।

    2.समुद्रों से ऊर्जा

    (अ) ज्वारीय ऊर्जा- घूर्णन गति करती पृथ्वी पर मुख्य रूप से चंद्रमा के गुरुत्वीय खिचाव के कारण सागरों में जल का स्तर चढ़ता व गिरता रहता है। ज्वार-भाटे में जल के स्तर के चढ़ने तथा गिरने से हमें ज्वारीय ऊर्जा प्राप्त होती है। ज्वारीय ऊर्जा का दोहन सागर के किसी संकीर्ण क्षेत्र पर बाँध का निर्माण करके किया जाता है। बाँध के द्वार पर स्थापित टरबाइन ज्वारीय ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित कर देती है।

    (ब) तरंग ऊर्जा- इसी प्रकार, समुद्र तट के निकट विशाल तरंगों की गतिज ऊर्जा को भी विद्युत उत्पन्न करने के लिए इसी ढंग से संग्रहित किया जा सकता है। तरंग ऊर्जा को संग्रहित करने के लिए टरबाइन को घुमाकर विद्युत उत्पन्न किया जा सकता है।

    (स) महासागरीय तापीय ऊर्जा समुद्रों अथवा महासागरों के पृष्ठ का जल सूर्य द्वारा तप्त हो जाता है जबकि इनके गहराई वाले भाग का जल अपेक्षाकृत ठंडा होता है। ताप में इस अंतर का उपयोग सागरीय तापीय ऊर्जा रूपांतरण विद्युत संयंत्र (Ocean Thermal Energy Conversion Plant या OTEC विद्युत संयंत्र ) में ऊर्जा प्राप्त करने के लिए किया जाता है।

    3. भूतापीय ऊर्जा (Geothermal Energy ):-

     भौमिकीय परिवर्तनों के कारण भूपर्पटी में गहराइयों पर तप्त क्षेत्रों में पिघली चट्टानें ऊपर धकेल दी जाती है जो कुछ क्षेत्रों में एकत्र हो जाती हैं। इन क्षेत्रों को तप्त स्थल कहते है जब भूमिगत जल इन तप्त स्थलों के संपर्क में आता है तो भाप उत्पन्न होती है। कभी-कभी इस तप्त जल को पृथ्वी के पृष्ठ से बाहर निकलने के लिए निकास मार्ग मिल जाता है। इन निकास मार्गों को गरम चश्मा अथवा ऊष्ण स्रोत कहते हैं। कभी-कभी यह भाप चट्टानों के बीच में फँस जाती है जहाँ इसका दाब अत्यधिक हो जाता है। तप्त स्थलों तक पाइप डालकर इस भाप को बाहर निकाल लिया जाता है।

    उच्च दाब पर निकली यह माप विद्युत जनित्र की टरबाइन को घुमाती है जिससे विद्युत उत्पादन करते हैं। इसके द्वारा विद्युत उत्पादन की लागत अधिक नहीं है परंतु ऐसे बहुत कम क्षेत्र हैं जहाँ व्यापारिक दृष्टिकोण से इस ऊर्जा का दोहन करना व्यावहारिक है। न्यूजीलैंड तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में भूतापीय ऊर्जा पर आधारित कई विद्युत शक्ति संयंत्र कार्य कर रहे हैं।

    4. नाभिकीय ऊर्जा-

    प्रत्येक परमाणु के नाभिक में प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन होते हैं तथा इलेक्ट्रॉन विभिन्न कक्षाओं में नाभिक को घेरे रहते हैं। वैज्ञानिकों ने अध्ययनों से यह ज्ञात किया कि किसी पदार्थ के परमाणुओं के केन्द्र में स्थित नाभिक असीमित ऊर्जा के भंडार हैं इसी ऊर्जा को नाभिकीय ऊर्जा कहा जाता है। नाभिकीय ऊर्जा को दो प्रकार की अभिक्रियाओं से प्राप्त किया जाता है। ये निम्न हैं

     (अ) नाभिकीय विखंडन (Nuclear Fission) (ब) नाभिकीय संलयन (Nuclear Fusion)

    (अ) नाभिकीय विखंडन:

    नाभिकीय विखंडन अभिक्रिया एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी भारी परमाणु (जैसे यूरेनियम प्लूटोनियम अथवा थोरियम) के नाभिक को निम्न ऊर्जा न्यूट्रॉन से बमवारी कराकर हलके नाभिको में तोड़ा जा सकता है। जब ऐसा किया जाता है तो विशाल मात्रा में ऊर्जा मुक्त होती है। यह तब होता है जब मूल नाभिक का द्रव्यमान उत्पादों के द्रव्यमानों के योग से कुछ ही अधिक होता है। जब मूल नाभिक का विखण्डन होता है तब नए उत्पादों के द्रव्यमान मूल नाभिकों के द्रव्यमान से कम होता है यह द्रव्यमान क्षति ही ऊर्जा के रूप में विमुक्त होती है।

    उदाहरण के लिए यूरेनियम के एक परमाणु के विखंडन में जो ऊर्जा मुक्त होती है वह कोयले के किसी कार्बन परमाणु के दहन से उत्पन्न ऊर्जा की तुलना में 1 करोड़ गुनी अधिक होती है। विद्युत उत्पादन के लिए डिजाइन किए जाने वाले नाभिकीय संयंत्रों में इस प्रकार के नाभिकीय ईंधन स्वपोषी विखंडन श्रृंखला अभिक्रिया का एक भाग होते है जिनमें नियंत्रित दर पर ऊर्जा मुक्त होती है। इस मुक्त ऊर्जा का उपयोग भाप बनाकर विद्युत उत्पन्न करने में किया जा सकता है।

    श्रृंखला अभिक्रिया (Chain Reaction)- 

    जब 25 पर मन्दगामी न्यूट्रॉन की बमबारी की जाती है, तो प्रत्येक यूरेनियम नाभिक लगभग दो बराबर खण्डों में टूट जाता है तथा इसके में साथ ही अत्यधिक ऊर्जा एवं तीन न्यूट्रॉन उत्पन्न होते हैं। अनुकूल परिस्थितियाँ मिलने पर ये न्यूट्रॉन अन्य यूरेनियम नाभिकों को भी विखण्डित कर देते हैं। इस प्रकार नाभिकों के विखण्डन की एक श्रृंखला बन जाती है, जो एक बार प्रारम्भ होने के बाद स्वतः ही तेजी से चलती रहती है जब तक की समस्त यूरेनियम विखण्डित नहीं हो जाता। नाभिकीय विखण्डन की इस अभिक्रिया को श्रृंखला अभिक्रिया कहते हैं।

    श्रृंखला अभिक्रिया दो प्रकार की होती हैं

    1.अनियंत्रित श्रृंखला अभिक्रिया (Uncontrolled Chain Reaction)

    2 नियंत्रित श्रृंखला अभिक्रिया (controlled Chain Reaction)

    1.अनियंत्रित श्रृंखला अभिक्रियाः-  जब यूरेनियम 235 पर मन्दगामी न्यूट्रॉन की बमबारी की जाती है तब तीन नए न्यूट्रॉन उत्पन्न होते हैं ये न्यूट्रॉन पुनः तीन युरेनियम परमाणुओं का विखण्डन करते हैं और पुनः प्रत्येक परमाणुओं से तीन न्यूट्रॉन उत्पन्न होते हैं विखण्डन की यह प्रक्रिया बहुत तीव्र गति से आगे की ओर बढती है तथा कुछ क्षणों में ही समस्त पदार्थों का विखण्डन हो जाता है। इस अभिक्रिया में विशाल मात्रा में ऊर्जा मुक्त होती है तथा एक प्रचण्ड विस्फोट का रूप ले लेती है। इस अभिक्रिया का उपयोग परमाणु बम बनाने में किया जाता है।

    2.नियंत्रित श्रृंखला अभिक्रियाः- नाभिकीय ऊर्जा का उपयोग रचनात्मक कार्यों में किया जाता है नियत मात्रा में ऊर्जा प्राप्त करने के लिए इस अभिक्रिया में कृत्रिम उपायों द्वारा ऐसा प्रबन्ध किया जाता है जिससे प्रत्येक विखण्डन में उत्पन्न न्यूट्रॉनों में से केवल एक ही न्यूट्रॉन आगे विखण्डन कर पाए। इस प्रकार इस अभिक्रिया में नाभिकीय विखण्डनों की दर नियत रहती है। अतः यह अभिक्रिया धीमी गति से होती है। नाभिकीय रिएक्टर में इसी अभिक्रिया का उपयोग किया जाता है।

    नाभिकीय विद्युत शक्ति संयंत्रों का प्रमुख संकट पूर्णतः उपयोग होने के पश्चात् शेष बचे नाभिकीय ईंधन का भंडारण तथा निपटारा करना है क्योंकि शेष बचे ईंधन का यूरेनियम अब भी हानिकारक (घातक) कणों (विकिरणों) में क्षयित होता है। यदि नाभिकीय अपशिष्टों का भंडारण तथा निपटारा उचित प्रकार से नहीं होता तो इससे पर्यावरण दूषित हो सकता है। इसके अतिरिक्त नाभिकीय विकिरणों के आकस्मिक रिसाव का खतरा भी बना रहता है। नाभिकीय विद्युत शक्ति संयंत्रों के प्रतिष्ठापन की अत्यधिक लागत, पर्यावरणीय प्रदूषण का प्रबल खतरा तथा यूरेनियम की सीमित उपलब्धता बड़े स्तर पर नाभिकीय ऊर्जा के उपयोग को निषेधक बना देते हैं।

    (ब) नाभिकीय संलयन:-

    आजकल के सभी व्यापारिक नाभिकीय रिएक्टर नाभिकीय विखंडन पर आधारित हैं। परंतु एक अन्य अपेक्षाकृत सुरक्षित प्रक्रिया जिसे नाभिकीय संलयन कहते हैं. द्वारा भी नाभिकीय ऊर्जा उत्पन्न करने की संभावना व्यक्त की जा रही है। संलयन का अर्थ है दो हलके नाभिकों को जोड़कर एक भारी नाभिक बनाना जिसमें सामान्यतः हाइड्रोजन अथवा हाइड्रोजन समस्थानिकों से हीलियम उत्पन्न की जाती है।

    इसमें विशाल परिमाण की ऊर्जा निकलती है। ऊर्जा निकलने का कारण यह है कि अभिक्रिया में उत्पन्न उत्पाद का द्रव्यमान अभिक्रिया में भाग लेने वाले मूल नाभिकों के द्रव्यमानों के योग से कुछ कम होता है। इस प्रकार की नाभिकीय संलयन अभिक्रियाएँ सूर्य तथा अन्य तारों की विशाल ऊर्जा का स्रोत हैं। नाभिकीय संलयन अभिक्रियाओं में नाभिकों को परस्पर संलयित होने को बाध्य करने के लिए अत्यधिक ऊर्जा चाहिए। नाभिकीय संलयन प्रक्रिया के होने के लिए मिलियन कोटि केल्विन ताप तथा मिलियन कोटि पास्कल दाब की आवश्यकता होती है।

    नाभिकीय ऊर्जा के लाभ :-

    1. U-235 की छोटी सी मात्रा से अत्यधिक ऊर्जा मुक्त होती है।

    2. अभिक्रिया में ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं होती है।

    हानि:- अभिक्रिया में रेडियो एक्टिव पदार्थ उत्पन्न होते हैं जो हानिकारक हैं।