जायांग(Gynoecium)
पुष्पासन पर
स्थित पुष्पीय पत्रों के चौथे अर्थात् अन्तिम केन्द्रीय चक्र को जो मादा जनन अंग
का कार्य करता है, जायांग कहते हैं।
यह कई एककों का बना होता है, इन एककों को
स्त्रीकेसर (Pistil) या अण्डप (Carpel)
कहते हैं। अन्य पुष्पीय पत्रों के ही समान
जायांग भी पत्ती का ही रूपान्तरण है जो मादा बीजाणु (Female
spores) अथवा मादा युग्मक अथवा
महाबीजाणुओं (Megaspores) को पैदा करता है, सामान्यतः एक
जायांग के सभी अण्डप चिपककर एक संयुक्त संरचना का निर्माण करते हैं, जिसे ही स्त्रीकेसर या जायांग कहते हैं।
अण्डपों की संख्या के आधार पर जायांग निम्न प्रकार के हो सकते हैं-
v एकाण्डपी (Monocarpellary) - :
जो जायांग एक ही अण्डप का बना होता है, उसे एकाण्डपी जायांग कहते हैं, जैसे- मटर, चना ।
v द्विअण्डपी (Bicarpellary)—:
जब जायांग दो अण्डपों का बना होता है, तब उसे द्विअण्डपी जायांग कहते हैं, जैसे-सरसों, तुलसी ।
v त्रिअण्डपी (Tricarpellary)—:
जब जायांग तीन अण्डपों का बना होता है, तब इसे त्रिअण्डपी जायांग कहते हैं, जैसे-प्याज ।
v चतुः अण्डपी (Tetracarpellary)-:
जब जायांग चार अण्डों का बना होता है, तब इसे चतुः अण्डपी कहते हैं, जैसे- क्लोरोडेण्ड्रॉन
v पंचाण्डपी (Pentacarpellary ) —:
जब जायांग पाँच अण्डयों का बना होता है, तब इसे पंचाण्डपी कहते हैं, जैसे-गुड़हल
v बहु: अण्डपी (Polycarpellary) –:
जब जायांग पाँच से अधिक अण्डयों का बना होता है, तब इसे बहुअण्डपी कहते हैं, जैसे-पोस्ता
अण्डप की संरचना (Structure of Carpel)-:
एक अण्डप निम्नलिखित तीन भागों-अण्डाशय, वर्तिका और वर्तिकाग्र का बना होता है।
1.अण्डाशय (Ovary) - :
अण्डप का निचला भाग फूले कोष के समान होता है, जिसे अण्डाशय कहते हैं। जब किसी जायांग में अण्डपों की संख्या एक से अधिक होती है, तब वे या तो एक-दूसरे से
संयुक्त अवस्था में या अलग-अलग स्थित होते हैं। जब अण्डप अलग-अलग स्वतन्त्र रूप में रहते हैं, तब इन्हें वियुक्ताण्डपी (Apocarpous) लेकिन जब एक जायांग के सभी अण्डप जुड़े होते हैं तब इन्हें युक्ताण्डपी (Syncarpous) कहते हैं। वियुक्ताण्डपी स्थिति में प्रत्येक अण्डप एक अण्डाशय बनाता है जैसे-गुलाब, कमल जबकि युक्ताण्डपी स्थिति में अण्डप आपस में निम्नलिखित विधियों द्वारा जुड़े रहते हैं
1) जायांग में स्थित सभी अण्डप आपस में समेकित होकर एक ही अण्डाशय, वर्तिका और वर्तिकाग्रका निर्माण करते हैं, जैसे- धतूरा।
2) अण्डाशय तथा वर्तिकाएँ समेकित होकर एक ही अण्डाशय तथा वर्तिका का निर्माण करते हैं जबकि इनके वर्तिकाग्र अलग-अलग रहते हैं, जैसे-गुड़हल ।
3) जायांग में स्थित सभी अण्डपों के अण्डाशय समेकित, लेकिन वर्तिकाएँ तथा वर्तिकाग्र अलग
अलग रहते हैं जैसे- अण्डी ।
4) जायांग के सभी अण्डपों को वर्तिकाएँ तथा वर्तिकाग्र जुड़े, लेकिन उनके अण्डाशय अलग-अलग
रहते हैं। जैसे-कनेर ।
5) जायांग के सभी अण्डयों के वर्तिकाग्र जुड़े, लेकिन उनके अण्डाशय व वर्तिकाएं अलग-अलग
रहते हैं। जैसे-ऑक (Calotropis)।
प्रत्येक अण्डाशय की गुहा में एक अथवा कई गोलाकार, छोटी रचनाएँ पायी जाती हैं, जिन्हें बीजाण्ड (Ovule) कहते हैं। ये बीजाण्ड एक तन्तु के द्वारा अण्डाशय की दीवार से जुड़े होते हैं। जिस स्थान परबीजाण्ड अण्डाशय की भित्ति से जुड़ा रहता है उस स्थान पर मृदूतक कोशिकाओं का बना एक उभरा भाग पाया जाता है जिसे बीजाण्डासन (Placenta) कहते हैं।
2.वर्तिका (Style):-
अण्डाशय के शीर्ष पर एक नलिकाकार रचना पायी जाती है जिसे वर्तिका कहते हैं। यह अण्डाशय तथा वर्तिकाग्र को जोड़ने का कार्य करती है। वास्तव में अण्डाशय का ही शीर्ष भाग पतला होकर वर्तिका का निर्माण करता है। कुछ जायांगों में वर्तिका का अभाव होता है इन्हें अवृन्ती (Sessile) जायांग कहते हैं। कुछ अण्डपों की वर्तिकाएँ अण्डाशय के शीर्ष से पैदा होती। है और सीधी बढ़ती हैं। इन वर्तिकाओं को अग्रस्थ (Terminal) वर्तिका कहते हैं जैसे
चाइना रोज कुछ पौधों की वर्तिका अण्डाशय के पास से ही टेढ़ी पार्श्व दशा में वृद्धि करती है, ऐसी वर्तिका को पास्वीय वर्तिका कहते हैं। कुछ पादप पुष्पों में वर्तिका अण्डाशय के बीच के दबे भाग से निकलती है और ऐसा आभास दिलाती है कि यह अण्डाशय के आधार
से निकल रही हो, ऐसी वर्तिका को जायांगाधिकारिक (Gynobasic) वर्तिका कहते हैं। कुछ पुष्पों की वर्तिका चपटी तथा रंगीन होती है और दल के समान दिखती हैं, ऐसी वर्तिका को दलाभ (Petaloid) वर्तिका कहते हैं। जैसे- केना। वर्तिका की सतह चिकनी अथवा रोमयुक्त हो सकती है। वर्तिका परागण के दौरान वर्तिकाग्र पर गिरे परागकणों को अण्डाशय तक ले जाने का मार्ग देती है।
(3) वर्तिकाग्र (Stigma):-
स्त्रीकेसर अर्थात् अण्डप का शीर्ष भाग वर्तिकाग्र कहलाता है। यह परागण के समय परागकणों को प्राप्त करता है। वर्तिकाग्र सामान्य घुण्डी या गाँठ के रूप में होता है, लेकिन कभी कभी यह लम्बा तथा नुकीला हो जाता है। सामान्यतः यह अशाखित होता है, लेकिन कुछ पुष्पों में एक, दो, तीन अथवा कई शाखाओं में विभाजित हो जाता है, ऐसी दशा में इसे द्विशाखी (Bifid), त्रिशाखी (Trifid)
अथवा बहुशाखी (Polyfid) कहते हैं। वर्तिका जब शाखित होता है तब इसकी शाखाओं की संख्या अण्डों की संख्या के बराबर होती है। परागकणों को चिपकाने के लिए इसकी सतह खुरदुरी (Rough), रोमयुक्त (Hairy) अथवा चिपचिपी (Sticky) हो सकती है। अफीम पादप में वर्तिकाग्र तारे के समान आकार ग्रहण कर लेती है। केसर (Crocus) में यह कीप तथा धान में पक्षियों के पर (Feathers) का रूप ले लेती है।
0 Comments