सम्पूर्ण मानव समाज की आधारशिला परिवार है। समाज की विद्यमानता और निरन्तरता के लिए परिवार अनिवार्य है। परिवार एक ऐसी संस्था है जिसे हम 'अमृत का घर' कहते हैं और इस घर में स्त्री का महत्व उतना ही है जितना पुरुष का एक स्त्री माता और पत्नी के रूप में जिन कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का निर्वाह करती है, समाज का उत्ककपकर्ष अवलम्बित है। माता पुरुष के चरित्र के विकास का प्राथमिक विद्यालय है तो पत्नी उसके विकास का प्रस्तर स्तम्भ होती है। इस प्रकार स्त्री-समाज का एक विशिष्ट महत्व है।
स्त्रियों की स्थिति (Status of Women)
सम्पूर्ण मानव समाज की आधारशिला परिवार है। समाज की विद्यमानता और निरन्तरता के लिए परिवार अनिवार्य है। परिवार एक ऐसी संस्था है जिसे हम 'अमृत का घर' कहते हैं और इस घर में स्त्री का महत्व उतना ही है जितना पुरुष का एक स्त्री माता और पत्नी के रूप में जिन कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का निर्वाह करती है, समाज का उत्ककपकर्ष अवलम्बित है। माता पुरुष के चरित्र के विकास का प्राथमिक विद्यालय है तो पत्नी उसके विकास का प्रस्तर स्तम्भ होती है। इस प्रकार स्त्री-समाज का एक विशिष्ट महत्व है।
स्त्रियों की स्थिति (Status of Women)
वैदिक युग में स्त्री की स्थिति अत्यन्त उन्नत एवं परिष्कृत थी। समाज में उसको सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था। समाज द्वारा न तो वे उपेक्षित थी और न ही उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता था। पुत्री काजन्म दुःख का कारण नहीं माना जाता था। वैदिक काल में पुत्र और पुत्री के सामाजिक और धार्मिकअधिकारों में बहुत अन्तर नहीं था। पुत्र की भाँति पुत्री भी उपनयन, शिक्षा-दीक्षा एवं यज्ञादि की अधिकारिणी थी। वे ब्रह्मचर्य की जीवन व्यतीत करती थी और अध्ययन करती थी। शिक्षित और विदुषी स्त्रियों की समाज में बड़ी प्रतिष्ठा थी। विश्वभरा घोषा और अपाला लोपमुद्रा जैसी विदुषियों ने मंत्रों की रचना की। पिता के घर में रहकर कन्याएँ गृह कार्य में मदद करती थीं। दूध दुहने के कारण वे 'दुहिता' कहलायीं। पत्नी के रूप में वे समस्त सामाजिक एवं धार्मिक अनुष्ठानो और आयोजनों में भाग लेती थीं। बिना पत्नी के घर की कल्पना नहीं की जा सकती थी। इसीलिए ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा गया है, “पत्नी ही घर है, पत्नी ही गृहस्थी है, पत्नी ही आनन्द है।"
वैदिक काल में विवाह(marriage in vedic
period)
वैदिक काल में बाल विवाह की प्रथा न थी। स्वयंवर एवं विधवा विवाह का प्रचलन नहीं था। कन्याओं का विवाह वयस्क अवस्था में होता था। नव वधु गृह की साम्राज्ञी के रूप में प्रतिष्ठित थी।
उत्तर वैदिक काल एवं उसके पश्चात् स्त्रियों की स्थिति
उत्तर वैदिक काल में समाज में स्त्री की स्थिति में भेदपरक विकास हुआ। यद्यपि स्त्री को परम्परागत आदर और सम्मान मिलता रहा परन्तु स्त्रियों की स्थिति-विवाह, सतीप्रथा, पर्दाप्रथा, देवदासी प्रथा, जाति व्यवस्था |
वैदिक कर्मकाण्डो की जटिलता के कारण शुद्धता और
पवित्रता के नाम पर स्त्रियों को धार्मिक कार्यों से अलग रखने का उपक्रम किया जाने
लगा। अर्न्तजातीय विवाह का प्रचलन हो जाने के कारण ऐसी स्त्रियों जिनका वैदिक
वाङ्गमय से परिचय नहीं था परिवार की सदस्य बनीं। अतः वैदिक साहित्य को सही एवं
शुद्ध बनाये। रखने के लिए स्त्रियों को अलग रखने का नियम बना। इसके बावजूद भी
पत्नी के रूप में स्वी को सम्मान प्राप्त था। सती प्रथा और पर्दा प्रथा का प्रचलन
नहीं था। स्त्रियों को नृत्य और संगीत की शिक्षा दी जाती थी। उत्तर वैदिक काल में
अनेक विदुषी स्त्रियों का उल्लेख मिलता है। इनमें गार्गी और मैत्रेयी के नाम
उल्लेखनीय हैं। बहुत सूत्रों और स्मृतियों के काल में स्त्रियों की
स्थिति दयनीय हो गई। स्त्रियों पर अनेक प्रकार के बन्धन और अवरोध लगाये गये।
उनकी राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और वैयक्तिक सभी स्थितियों पर प्रतिबन्ध लगे। जन्म से लेकर मृत्यु तक स्त्रियों पुरुषों के नियंत्रण में संरक्षित जीवन जीने के लिए बाध्य हो गई। कन्या के रूप में पिता का, पत्नी के रूप में पति का और माता के रूप में पुत्र के नियंत्रण में जीवन जीने के लिए वे बाध्य थी। पूर्व मध्यकाल तक आते-आते यह नियंत्रण कठोरतम होते गये। समाज ने धर्म और रक्षा के नाम पर अनेक ऐसे नियमों और व्यवस्थाओं का नियमन किया जिनसे स्वियों की दशा निरन्तर दयनीय होती गई।
वैदिक युग में स्त्री जितन, स्वतन्त्र थी उतनी परवर्ती काल
के किसी युग में नहीं रही। समाज में स्त्रियों का सम्मान क्रमशः कम
होता चला गया। पितृ सत्तात्मक समाज में स्त्रियों पर अनेक नियन्त्रण थोपे गये। पुत्री
जन्म को दुःख का कारण माना जाने लगा।
वैदिक युग में स्त्री-शिक्षा(Women's
Education in the Vedic Age)
वैदिक युग में स्त्री को शिक्षा प्राप्त करने के समस्त अवसर उपलब्ध थे। स्त्रियाँ यज्ञ, दर्शन और तर्कशास्त्र में निपुण थी। वैदिक काल में दो प्रकार की छात्राएँ थी। प्रथम सद्योवध — जो विवाह के पूर्व तक कुछ वेद-मन्त्र और याज्ञिक प्रार्थनाओं का अध्ययन करती थी तथा द्वितीय ब्रह्मवादिनी–जो शिक्षा पूर्ण रूप से समाप्त करने के बाद ही विवाह करती थीं। कुछ स्त्रियाँ तो जीवन भर अध्ययन का संकल्प सेती थी। मैत्रेयी, गार्गी जैसी स्त्रिय मीमांसा तर्क और दर्शन में पारंगत थीं।
बौद्ध काल में त्रियों की बौद्ध आगमों की शिक्षिकाओं के रूप में बड़ी ख्पति थी। उस युग में सहशिक्षा प्रचलित थी। पाणिनी ने महिला शिक्षण शाला का उल्लेख किया है। पुराणों से नारी शिक्षा के दो रूप ज्ञात होते हैं—आध्यात्मिक और व्यावहारिक व्यावहारिक शिक्षा में नृत्य, संगीत, चित्रकला, पाकशास्त्र आदि का ज्ञान दिया जाता था।
दूसरी सदी ई. पू. तक स्थिति में परिवर्तन आ चुका था। स्त्री का उपनयन संस्कार बन्द हो चुका था। विवाह के समय पर ही उनका संस्कार होता था। मनु के अनुसार पति ही कन्या का आचार्य, विवाह ही उसका उपनयन संस्कार, पति की सेवा ही उसका आश्रम निवास और गृहस्थी के कार्य ही दैनिक धार्मिक अनुष्ठान है। उन्हें वेदों को उच्चारण करने और यज्ञों में भाग लेने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। शिक्षण संस्थाओं में जाना स्वी के लिए अतीत की बात हो गयी थी। स्त्री केवल घर पर ही शिक्षा प्राप्त कर सकती थी। पूर्व मध्य युग तक स्त्री शिक्षा का प्रसार अवरुद्ध हो चुका था। इसके बाद भी अभिजात वर्ग की स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त करती थीं। प्राकृत और संस्कृत में वे दक्ष होती थी तथा व्यावहारिक ज्ञान में भी वे प्रवीण होती थीं। अपवाद रूप में ऐसी स्त्रियं का उल्लेख मिलता है, जो शासन व्यवस्था और राज्य प्रबन्ध में दक्ष होती
वैदिक युग में सम्पत्ति में अधिकार(Right to Property in the Vedic Age)
वैदिक युग में स्त्री का सम्पत्ति विषयक अधिकार स्वीकार किया गया है। परन्तु दूसरी सदी ई. पू. पश्चात् इसमें अवरोध खड़े हो गये। इसका कारण यह था कि धर्म शास्वकारों में • अनेक ऐसे थे जो अनुदार थे और उन्होंने स्त्री के उत्तराधिकार को स्वीकार नहीं किया। वशिष्ट, गौतम, मनु आदि ने उत्तराधिकारिणी के रूप में पुत्री का उल्लेख नहीं किया था। कौटिल्य, याज्ञवल्क्य, बृहस्पति और नारद ने स्त्री को उत्तराधिकारी मानने में कोई संकोच नहीं किया है। उत्तर वैदिक काल में विधवा का सम्पत्ति में अधिकार को स्वीकृति प्राप्त हुई। शास्त्रकारों ने यह विचार किया कि यदि विधवा पुनर्विवाह नहीं करती है या नियोग द्वारा पुत्र उत्पन्न नहीं करती है तब उसका भरण-पोषण कठिन हो जायेगा अतः उन्होंने उसके आर्थिक जीवन को सुरक्षित बनाने के लिए उसे सम्पत्ति विषयक अधिकार को स्वीकार किया। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री को पुरुष के समान मानने से एवं समान अधिकार देने के लिए शास्त्रकार तैयार नहीं थे।
स्त्री-धन(women's wealth)
शास्त्रकारो ने स्वी-धन पर भी अपने विचार व्यक्त किये है। स्त्री की अपनी स्वयं की सम्पत्ति, जिस पर उसका पूर्ण अधिकार होता है, स्वी धन कहा जाता है। स्त्री धन वह होता है जो स्त्री को माता, पिता, भ्राता और पति द्वारा दिया गया, अग्नि की सान्निधि में विवाह के समय कन्यादान से प्राप्त तथा अभिवंदन के निमित्त प्राप्त धन होता है। विवाह के पश्चात् सास, ससुर आदि से प्राप्त धन भी स्वी धन होता था। पति द्वारा स्त्री को दिया गया धन, उत्तराधिकार में मिली हुई सम्पत्ति की गणना भी स्त्री धन के रूप में की जाती है। स्वो धन में वे मूल्यवान भूषण भी सम्मिलित थे, जिनका उपयोग वह करती थी।
शास्त्रकारों ने स्त्री धन की उत्तराधिकारिणी पुत्री को ही माना है। हिन्दू समाज में स्त्री धन स्त्री की सामाजिक और आर्थिक दशा की ओर इंगित करता है। पिता या पति की मृत्यु के पश्चात् स्त्री का जीवन यापन स्त्री धन के कारण सुगम हो जाता था। विधवा - पति की मृत्यु के बाद स्त्री के दो मुख्य कर्तव्य थे पति के साथ सती होना या ब्रह्मचर्य का पालन करत हुये शेष जीवन व्यतीत करना। शास्त्रकारों ने विधवा का निषेध करते हुए विधवा को कठोर कर्तव्य और दायित्व बताए हैं। विधवा की स्थिति समाज में बहुत अधिक नियन्त्रित एवं दुःखद थी। सती प्रथा का प्रचलन था परन्तु यह प्रथा राजपरिवार एवं अभिजात वर्ग में ही अधिक प्रचलित थी। अनेक शास्त्रकारों ने सती प्रथा का प्रबल विरोध किया है। सती प्रथा का विरोध होते हुए भी समाज पर इसका प्रभाव बराबर बना रहा। मध्यकाल में राजपूत और योद्धा वर्ग ने सती प्रथा का विशेष अनुसरण किया।
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