सातवाहन (Satavahana)
- सातवाहन उत्पत्ति एवं मूल निवास स्थान(Satavahana Origin and Native Place)
- मूल निवास स्थान(Original habitat)
- सातवाहनों का उत्कर्ष(The rise of the Satavahanas)
- सातवाहनों के समय में सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन(Social, economic and cultural life during the time of the Satavahanas)
- सामाजिक दशा(Social condition)
- आर्थिक दशा(Economic condition)
- सांस्कृतिक दशा(Cultural condition)
सातवाहन उत्पत्ति एवं मूल निवास स्थान(Satavahana Origin and Native Place)
सातवाहन उत्पत्ति –( Satavahana origin)
वायुपुराणके अनुसार आधजातीय सिन्धुक ने कण्ववंशीय शासक सुशर्मा एवं शुंगों की अवशिष्ट शक्ति को समाप्त करके अपनी स्वतन्त्र सत्ता की स्थापना की। पुराणों में इस नवीन राजवंश को आंध्र नृत्य । और आंधजातीय कहा गया है। परन्तु इस वंश के अभिलेखों में उन्हें 'सातवाहन' या 'शातकर्णी' कहा गया है। साहित्य में इस वंश के लिए 'शालिवाहन' शब्द का भी प्रयोग हुआ है। सातवाहन शासकों के अभिलेखों में कहीं भी 'आंध्र' शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है। इस विरोधाभास के सम्बन्ध में विद्वानों ने पृथक पृथक मत प्रस्तुत किया है।
मूल निवास स्थान(Original habitat)
रैप्सन, स्मिथ और भण्डारकर का मत है कि सातवाहनवंशीय शासक आन्ध्र प्रदेश के मूल निवासी थे। परन्तु अभिलेखों और मुद्राओं से प्रमाणित होता है कि सातवाहन शक्ति का उद्भव महाराष्ट्र प्रदेश में हुआ था और उनकी शक्ति का केन्द्र प्रतिष्ठान (वर्तमान पैठान, औरंगाबाद जिला) था। शुगों और कण्वों की भाँति वे भी ब्राह्मण और आर्यवंश के थे। अतएव वे आन्ध्रों से नितांत भिन्न थे और महाराष्ट्र के निवासी थे। प्रश्न उठता है कि पुराणों में सातवाहन शासकों को आन्ध्रवशीय क्यों कहा गया है? प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण महाराष्ट्र पर अधिकार करने के पश्चात् सातवाहन शासकों ने आंध्र प्रदेश को अपने राज्य में मिला लिया। परन्तु शकों के आक्रमण के कारण महाराष्ट्र पर उनका अधिकार नहीं रह गया और उनकी सत्ता आन्ध्र प्रदेश तक सीमित रह गयी। इसीलिए पुराणों में सातवाहन शासकों को आन्ध्रवशीय कहा गया है।
पुलमावि के नासिक गुफा अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णी
को एक 'अद्वितीय
ब्राह्मण' कहा गया है। एक दूसरे अभिलेख में उसकी तुलना परशुराम से की गयी है। रायचौधरीका
मत है कि सातवाहन ब्राह्मण जाति के थे। परन्तु उनमें नाग रक्त का मिश्रण था। 'द्वात्रिंशत् पुत्तलिका'
के अनुसार
सातवाहनों में
ब्राह्मण और नागों का रक्त मिश्रित था। शातकर्णी प्रथम की पत्नी नागनिका के नाम से भी विदित होता है कि उनमें नाग रक्त का मिश्रण था।
सातवाहनों का उत्कर्ष(The rise of the Satavahanas)
अधिकांश विद्वान मानते हैं कि सातवाहनों ने पूर्व
प्रथम शताब्दी में अपने स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। पुराणों के अनुसार कण्व
वंश के पतन के पश्चात् सातवाहनों का उदय हुआ। इस वंश का संस्थापक सिमुक था।
पुराणों में उसके अन्य नाम, जैसे सिन्धुक, शिशुक और शिप्रक भी मिलते है। उसे मृत्य भी कहा गया
है। प्रतीत होता है कि वह कण्वों का सामन्त था और दक्षिण भारत में उसने कण्वों की
सत्ता समाप्त करके एक नये राजवंश की नींव रखी। उसके बाद उसका भाई काह्र या कृष्ण
शासक बना। उसने नासिक तक सातवाहन राज्य का विस्तार किया। पराक्रमी राजा था।
पुराणों के अनुसार, वह काल का पुत्र था। उसने महाराष्ट्र के अंगीय वंश की राजकुमारी
(1) शातकर्णी प्रथम काह के पश्चात् शातकर्णी शासक बना। वह सातवाहन वंश का प्रथम नयनका नागरिक नग्न या नागानिका से विवाह कि इस वैवाहिक सम्बन्ध का सातवाहन वंश के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इससे उसकी शक्ति में वृद्धि हुई होगी और यह सम्बन्ध साम्राज्य विस्ता में सहायक सिद्ध हुआ होगा। उसकी पत्नी के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसका राज्य वरार हैदराबाद, मालवा, उज्जैन और विदिशा तक विस्तृत था। साँची स्तूप के एक अभिलेख से पता च है कि विदिशा और आसपास के क्षेत्रों पर भी उसका अधिकार था। अपनी विजयो के उपलक्ष्य में उससे दो बार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया। उसने 'दक्षिणापथपति' और 'अप्रतिहतचक्र' की उप धारण की।
उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके दो अल्पवयस्क पुत्र वेदजी और शक्तिज्री शासक बने। उनकी संरक्षिका उनकी माता नयनिका बनी और उनकी अल्पवयस्कता के दौरान उसने शासन का भार सँभाला। शातकर्णी के पश्चात् साहवाहनों की शक्ति का तेजी से ह्रास हुआ और शकों ने सातवाहन राज्य के पश्चिमे भाग पर अधिकार कर लिया। पहली शताब्दी ई. के अन्त में इस वंश में हाल नामक एक शासक हुआ जो महान् विद्वान और साहित्य तथा कला का महान् आश्रयदाता था। वह 'गाथा सप्तशती' का रचयिता था।
(2) पुत्र शातकर्णी (106 ई. में 130 ई.) पुराणों के अनुसार इस वंश का तेईस राज गौतमीपुत्र शातकर्णी था। वह सातवाहन वंश का सबसे महान् और पराक्रमी शासक था। शकों के आक्रमण के कारण सातवाहन राज्य छिन्न-भिन्न हो गया था। उसके पूर्वज शक आक्रमणों से सातवाहन राज्य की रक्ष नहीं कर सके। लगभग एक शताब्दी पश्चात् गौतमीपुत्र शातकर्णी ने अपने वंश के गौरव और प्रतिष्ठा को पुन स्थापित किया। उसने सातवाहन वंश की भाग्यलक्ष्मी का पुनरुद्धार किया।
(i) विजये गौतमीपुत्र सातकर्णी के पुत्र वशिष्ठीपुत्र पुलमानी के अभिलेख में उसकी विजय उल्लेख मिलता है। नासिक के दो अभिलेखों के अनुसार उसने क्षत्रियों का मानमर्दन किया। शक यवनः और पल्लवों को पराजित किया और क्षहरात वंश का उन्मूलन किया। जोगलथम्भी से प्राप्त मुद्राएँ इस बात को प्रमाणित करती है कि उसने क्षहरात वंश का विनाश किया। इन मुद्राओं पर उसका और शक नरेश नहपान का नाम अंकित है। प्रतीत होता है कि शक नरेश नहपान पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् उसको मुद्राओं पर उसने अपना नाम उत्कीर्ण करवाया था। परन्तु स्मिथ, भंडारकर और नीलकंठ शास्त्री का मत है कि दोनों समकालीन शासक नहीं थे। अतएव दोनों के बीच संघर्ष का प्रश्न ही नहीं उठता है।
(ii) साम्राज्य नासिक गुहालेख से विदित होता है कि उसके साम्राज्य में असिक, अटमक (गोदावरी का प्रदेश), मूलक, सुराष्ट्र (दक्षिण काठियावाड), कुकुर (उत्तरी काठियावाड़), अपरान्त (बम्बई) प्रान्त), अनूप (माहिस्मती का प्रदेश), विदर्भ (बरार), आकर (पूर्वी मालवा), अवन्ती (पश्चिमी मालवा) आदि राज्य सम्मिलित थे। इन राज्य के शासकों को उसने पराजित किया। इसी अभिलेख में उसे अनेक पर्वत श्रेणियों का स्वामी कहा गया है। वह विजय ऋक्षवत, पारियात्र, सहय, मलय आदि अनेक पर्वतो का अधिपति था। प्रतीत होता है कि वह वर्तमान गुजरात, सौराष्ट्र, मालवा, बरार, उत्तरी कोकण, पूना और नासिक आदि प्रदेशों का स्वामी था।
(iii) प्रजापालक शासक—–वह न केवल एक महान विजेता, वरन् प्रजापालक शासक भी था। नासिक अभिलेख में उसके गुणों का वर्णन मिलता है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त आकर्षक था। उसके मुखमण्डल पर अदभुत आभा थी। वह रूपवान था, उसकी भुजाएँ बलिष्ठ और लम्बी थी, उसकी चाल सुन्दर थी। वह एक दयावान शासक और आज्ञाकारी पुत्र था। वह गुणवानों का आश्रयदाता था। वह वैदिक धर्म का अनुयायी था और उसने ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान किया। इसीलिए अभिलेखों में उसे 'एक ब्राह्मण' कहा गया है। परन्तु दूसरे धर्मावलम्बियों के प्रति वह उदार एवं सहिष्णु था। उसने समाज में वर्ण-व्यवस्था को पुनः स्थापित किया। प्रजा के सुख के लिए वह उत्सवों का आयोजन करता था। कुछ विद्वानों का मत है कि भारतीय जनश्रुति का विक्रमादित्य गौतमीपुत्र शातकर्णी ही था परन्तु अधिकांश विद्वान इस मत स्वीकार नहीं करते हैं। कुछ विद्वान मानते है कि उसने अपने पुत्र वाशिष्ठीपुत्र पुलमावी के साथ संयुक्त किया। परन्तु प्रामाणिक साक्ष्यों के अभाव में यह मत भी स्वीकार नहीं किया गया। उसने स वर्ष (106 ई.0130 ई. तक) शासन किया। उसकी योग्यता और शक्ति का अनुमान इसी बात जा सकता है कि उसकी मृत्यु के पश्चात् शकों ने सातवाहन राज्य के अनेक भागों पर लिया।
(3) वाशिष्ठीपुत्र पुलगाव गौतमीपुत्र सातकर्णी के पश्चात् वाशिष्ठीपुत्र पुलावी शासक बना। पुराणों में उसे पुलोमा भी कहा गया है। उसके शासनकाल में शक सातवाहन संघर्ष पुनः प्रारम्भ हो गया। रुद्रदामन के जूनागढ़ (गिरनार) अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने दक्षिणापथपति शातकर्णी को दो बार हराया। परन्तु निकट सम्बन्ध होने के कारण उसे नष्ट नहीं किया। कन्हेरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने महाक्षत्रप रुद्रदामन की पुत्री के साथ विवाह किया था। दक्षिण में उसने आन्ध्र प्रदेश तक अपने राज्य का विस्तार किया। इस प्रकार उसने आन्ध्र प्रदेश को जीतकर उत्तरी प्रदेशों की क्षति को पूरा किया। अभिलेखों और मुद्राओं से विदित होता है कि उसका साम्राज्य महाराष्ट्र, विदर्भ, आन्ध्र प्रदेश तथा कारोमण्डल तट तक विस्तृत था। उसके सिक्के कोरोमण्डल तट से प्राप्त हुए हैं। प्रतिष्ठान उसके राज्य की राजधानी थी। प्रसिद्ध भूगोलशास्त्री टॉलेमी उसे 'प्रतिष्ठान का राजा' कहता है। उसने 'महाराज' और 'दक्षिणापथेश्वर' की उपाधि धारण की। उसने अनेक नगरों की भी स्थापना की। उसने अमरावती स्तूप के चारों ओर परवेष्ठि और नक्काशीदार संगमरमर की पट्टियों का निर्माण भी करवाया।
(4) यज्ञश्री शातकर्णी सातवाहन वंश का अन्तिम शासक यज्ञत्री शातकर्णी था। वह एक महान् विजेता और पराक्रमी शासक था। उसकी मुद्राएँ गुजरात, सुराष्ट्र, पूर्वी और पश्चिमी मालवा, मध्य प्रदेश और आन्ध्र प्रदेश से प्राप्त हुई है। उसके कुछ सिक्कों पर जलयान के चित्र अंकित है। प्रतीत होता है कि उसके शासनकाल में सामुद्रिक व्यापार उन्नत अवस्था में था। उसका साम्राज्य पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर अरब सागर तक फैला हुआ था। शकों की मुद्राओं का अनुकरण कर उसने चाँदी की मुद्राएँ ढलवायी, जो शकों पर उसकी विजय को इंगित करती है।
यज्ञत्री शातकर्णी की मृत्यु के पश्चात् सातवाहनों का पतन प्रारम्भ हो गया। महाराष्ट्र पर आभीरों और दक्षिण भारत पर इक्ष्वाकुओं और पल्लवों ने अधिकार कर लिया। इस प्रकार तीसरी शताब्दी ईसवीमें सातवाहन शक्ति समाप्त हो गयी। सातवाहनकालीन शासन व्यवस्था सातवाहन शासक बाह्मण धर्म के अनुयायी थे। उनकी शासन व्यवस्था पर स्मृति ग्रंथों की छाप स्पष्ट रूप से झलकती है। सातवाहन शासकों के राजत्व सिद्धांत मोयं शासकों के समान थे। सातवाहन, प्रजावत्सल थे। उनकी शासन प्रणाली में स्वायत्त संस्थाएँ प्रभावशाली थी। नगर सभाओ, व्यवसायिकों के निकायों की बहुलता इसका प्रमाण है।
सातवाहन युग में मंत्रियों को अत्यधिक सम्मान एवं अधिकार प्राप्त थे। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से इसकी पुष्टि होती है। प्रांतीय शासन व्यवस्था में क्षत्रप व्यवस्था विद्यमान रही। तखशिला, मथुरा, उज्जैन में क्षत्रप नियुक्त थे। शासन सैन्य शासन की भाँति था। इस शासन काल में जिलाधिकारियों को 'महासेनापति' कहा जाता था। नगरों में नगर सभाओं का अस्तित्व था। नगर के अध्यक्ष को 'नगराक्षदर्श' कहा जाता था। ग्राम का मुखिया ग्राम प्रशासन का अध्यक्ष होता था। ग्रामों में ग्राम सभाएँ होती थीं। इनके माध्यम से राजा ग्रामवासियों के संपर्क में रहता था। सातवाहन युग के अभिलेखों से जानकारी मिलती है कि ग्राम श्रेणी, निगम ती जनपद के अपने-अपने निकाय होते हैं।
सातवाहनों के समय में सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन(Social, economic and cultural life during the time of the Satavahanas)
सातवाहन शासकों को साम्राज्य निर्माण के आरंभ से ही प्रबल विदेशी शक्ति शकों से संघर्ष करना पड़ा परंतु इसके बावजूद भी देश में सभ्यता और संस्कृति की प्रगति प्रवाहित होती रही। सातवाहन कालीन अभिलेख एवं साहित्यिक साक्ष्य सातवाहन कालीन राजनीति, समाज, अर्थ व्यवस्था एवं संस्कृति पर प्रपुर प्रकाश डालते हैं।
सामाजिक दशा(Social condition)
स्त्री का सम्मानपूर्ण स्थान - सातवाहनकालीन दक्षिण भारत के सामाजिक जीवन में स्वी का सम्मानपूर्ण स्थान था। दक्षिण भारत का समाज मातृ सत्तात्मक था। सातवाहन शासकों के नाम के पूर्व उनकी माता के नाम का उल्लेख मिलता है। उदाहरणार्थ गौतमीपुत्र शातकारी, वाशिष्ठी पुत्र पु आवश्यकता पड़ने पर स्त्रियों शासन सूत्र अपने हाथ में ग्रहण करती थीं। वे अपने पतियों के साथ कार्यों में संहर्ष भाग लेती थी। अभिलेखों में जिन रानियों का उल्लेख किया गया है, उनके प्रति आदर एवं सम्मान प्रकट किया गया है। स्त्रियों को विधवा जीवन व्यतीत करने पर भी यंत्रणा सहन करनी पड़ती थी। 'मनु' स्त्रियों को स्वतंत्रता के समर्थक नहीं थे अतः समाज में खियों की स्थिति म निम्नतर होती गयी। उन्होंने विधवा विवाह और नियोग का विरोध किया। परंतु सातवाहन अभिलेख ज्ञात होता है कि समाज में स्त्रियों को सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था।
चार वर्ण एवं सामाजिक सम्मान के विभिन्न स्तर सातवाहनकालीन सामाजिक जीवन के एक विशेषता यह थी कि चार वर्णों के आधार पर समाज का विभाजन था। अभिलेखों में ब्राह्मण, वैश्य और शुद्र वर्णों का उल्लेख मिलता है। व्यवसाय के आधार पर अनेक जातियों का निर्माण हो गय था। चार वर्षों में से ब्राह्मण वर्ण का सबसे अधिक महत्व होता था। अभिलेख यह भी जानकारी देते है है सामाजिक सम्मान के विभिन्न स्तर क्या थे सबसे ऊँचा स्थान महारठियों (महाराष्ट्रिको) महाभोज महासेनापतियों का था। उसके पश्चात् अमात्य, महामात्र और महभाण्डागारिक आदि अधिकारी सम्मान प थे। निगम (सार्थवाह व्यापारीगण जेण्टिन (श्रेणिप्रमुख) इसी वर्ग में आते थे। सम्मान की से तीसरे वर्ग में वैद्य, लेखक, सुवर्णकार, गांधिक, हालवीय (कृषक) का स्थान आता था। चतुर्थ वर्ग में मालाकार (माली), वर्धकी (बदई), लोवाणिज्य (लुहार) एवं दास्सक (मछुये) आते थे।
सामाजिक जीवन में परिवर्तन सातवाहन नरेश ब्राह्मण थे और वैदिक धर्म के पुरुस्थान के लिए सजग रहते थे। उन्होंने वर्णाश्रम धर्म के प्रचार के लिए प्रयत्न किए। स्मृतिकार सामाजिक जीवन के नियम को कठोर बना रहे थे परंतु व्यावहारिक रूप से वर्ण संबंधी जटिलताएँ निर्मित नहीं हुई थी और सामाजिक जीवन के अन्य नियमों में कठोरता का समावेश नहीं हुआ था।
मनु के अनुसार दस वर्ष का ब्राह्मण सौ वर्ष के क्षत्रिय की अपेक्षा अधिक आदरणीय है। सातवाहन अभिलेखों में गौतमीपुत्र शातकर्णी को 'एक ब्राह्मण' तथा 'क्षत्रियदर्यमानमर्दन' कहा गया है। उसने समाज में वर्णसंकरता को रोका। समाज में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को पुर्नस्थापना की। व्यवसाय के आधारपर समाज में अनेक जातियों का निर्माण हो गया था। सातवाहन अभिलेखों में इन जातियों का उल्लेख मिलता है। मनुस्मृति से विदित होता है कि समाज में जाति व्यवस्था कठोर हो गई थी। समाज मे अंर्तजातीय विवाह का प्रचलन था। शातकर्णी प्रथम ने क्षत्रिय राजकुमारी से विवाह किया था। वासष्टी पुत्र पुलमावी ने महाक्षत्रप दामन की पुत्री से विवाह किया था। ऐसा प्रतीत होता है कि विदेशियों का तेजी से भारतीयकरण हो रहा था। समाज की इकाई 'कुटुम्ब' थी। इसके अध्यक्ष को 'कुटुम्बिन' कहा जाता था। कुटुम्बिन का परिवार के सभी सदस्य सम्मान करते थे। हाल कृत 'गाथा सप्तशती' से ज्ञात होता है कि समाज के निम्नस्तर के लोगों का जीवन भी सुखमंग था। जीवन के प्रति लोगों का दृष्टिकोण स्वस्थ एवं आशावादी था।
आर्थिक दशा(Economic condition)
सातवाहन काल में समाज आर्थिक दृष्टि से संपन्न एवं खुशहाल था। समाज के आर्थिक जीवन का आधार कृषि, उद्योग-धंधे और व्यापार था। कृषि कर्म और पशुपालन प्रमुख व्यापार थे। समकालीन अभिलेखों में विभिन्न उद्योग-धंधी का उल्लेख मिलता है। व्यवसाय के आधार पर श्रेणियाँ संगठित हो गई थीं। कई श्रेणियों के उल्लेख मिलते है-धजिक (अन्न विक्रेता), कुम्भकार, कोलिक निकाय (जुलाहे), तिलपिषक (तेली), वासाकार (कांसे के बर्तन आदि बनाने वाले), बसकार (बाँस की वस्तुओं के बनाने वाले), सुवर्णकार आदि।
श्रेणियाँ, शिल्पियों का संगठन (निकाय) ही नहीं थी बल्कि बैंक का कार्य भी करती थी। लोग निकायों में धन जमा कर ब्याज वसूलते थे। मुद्राओं का प्रचलन था। सबसे अधिक मूल्यवान 'सुवर्ण' सिक्का था। चाँदी की मुद्रा 'कर्षापण' कहलाती थी। एक सुवर्ण सिक्के का मूल्य चाँदी के 35 कर्यापण के बराबर होता था। ताँबे के सिक्के भी प्रचलन में थे। मुद्राओं का अधिकता से प्रचलित होना इस युग की आर्थिक समृद्धि का सूचक है।
सातवाहन युग में दक्षिण भारत में वाणिज्य और व्यापार उन्नत दशा में था। आंतरिक और बाहा दोनों प्रकार के व्यापार उन्नतशील थे। आंतरिक व्यापार के लिए राजमार्गों की सुविधा थी। सड़क मार्ग से काफिले व्यापारियों का माल एक से दूसरे स्थान तक पहुँचाने का कार्य करते थे। पैठन, नगर, नासिक, जुन्नार, करहाड आदि व्यापार के प्रसिद्ध केन्द्र थे। बाड़ा व्यापार काफी समृद्ध अवस्था में था। पश्चिमी यूरोप से भारत का धनिष्ठ व्यापारिक संबंध था। भड़ौच, सोपार और कल्याण प्रसिद्ध बन्दरगाह थे। इन बन्दरगाहों से व्यापारी जलयानों में बैठकर व्यापारिक यात्राएँ करते थे। विदेशी व्यापार से धन में वृद्धि होती थी।
सार्थवाह (सौदागरों के काफिले का सरदार), निगम (एक साधारण व्यापारी), श्रेष्ठित, (श्रेणी प्रमुख) व्यापार कार्य में सलग्न थे। समाज में इन्हें भरपूर सम्मान प्राप्त था। विभिन्न व्यवसायों की पृथक पृथक श्रेणियाँ (संगठन) थीं। शिल्पियों के निकायों की बहुलता इस बात का प्रमाण है कि आर्थिक क्रियाकलाप उन्नत स्थिति में थे।
सांस्कृतिक दशा(Cultural condition)
धार्मिक जीवन- सातवाहनमुगीन दक्षिण भारत में समाज का दृष्टिकोण उदार एवं सहिष्णु था। सातवाहन शासक ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे परंतु उन्होंने अन्य धर्मावलम्बियों पर कभी अत्याचार नहीं किये। सातवाहन शासन काल में बौद्ध धर्म को फलने-फूलने का अवसर मिला। इस काल में बौद्ध भिक्षुओं के लिए चैत्य और दरीगृहों का निर्माण हुआ। समाज के धनी लोग भिक्षुओं जीवन-यापन के लिये प्रचुर मात्रा में दान देते थे।
सातवाहन नरेश ब्राह्मण धर्म के कट्टर अनुयायी थे।
उन्होंने वैदिक यज्ञा के अनुष्ठान पर बल दिया। इस काल में ब्राह्मण धर्म के
साथ-साथ शैव और वैष्णव धर्मों की बहुत उन्नति हुई। सातवाहन कालीन अभिलेखों से
ज्ञात होता है कि शैव और वैष्णव धर्म के अनुयायियों की संख्या बहुत अधिक थी।सातवाहन
काल में बड़ी संख्या में विदेशियों ने हिन्दू धर्म ग्रहण किया। विदेशियों ने अपने
नामभी हिन्दू धर्म के अनुकूल रख लिये। तत्कालीन धर्माचार्यों ने भी इसे स्वीकार
किया।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सातवाहन काल में विभिन्न धर्मावलम्बियों के मध्य सौहार्द्र तथा सहिष्णुता की भावना विद्यमान थी।सातवाहन कालीन कला- सातवाहन युग कलाओं के विकास और साहित्य सृजन की दृष्टि से उल्लेखनीय था। इस समय स्थापत्य कला की बड़ी उन्नति हुई। स्थापत्य कला के विभिन्न रूप गुहा मंदिर, शैलगृह, चैत्य गृह आदि का निर्माण इस काल में हुआ। मौर्य काल में पर्वतों की चट्टानों को काटकर शैल गृहों के निर्माण की कला का सातवाहन काल में विकास हो चुका था। महाराष्ट्र में गुहा मंदिरों को 'लेण' और उड़ीसा में 'गुफा' कहा जाता है। महाराष्ट्र के अधिकांश गुहा मंदिर बौद्ध धर्म और उड़ीसा के गुहामंदिर जैन धर्म से संबंधित है। नासिक, कार्ले और भाजा में अनेक सुंदर और भव्य गुहा विहारों और गुहा का निर्माण सातवाहन काल में हुआ। चैत्य जुन्नार, अजता और एलोग में अनेक शैल्य गुझे का निर्माण इस युग में हुआ। कार्ले का चैत्य बहुत ही विशाल और सुंदर है।
दूसरी से चौथी शताब्दी तक अमरावती तथा नागार्जुन कोटा में स्तूप का निर्माण हुआ। अमरावती बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र था। सर जान मार्शल के अनुसार अमरावती की कला में अत्यधिक मौलिकता, स्वच्छन्दता तथा स्वाभाविक अंकन है। अमरावती का स्तूप चूने की नक्काशी से अलंकृत है।
सातवाहन नरेश प्राकृत भाषा के पोषक और प्राकृत कवियों के आश्रयदाता थे। सातवाहनकालीन अभिलेख प्राकृत भाषा में उत्कीर्ण हैं। सातवाहन नरेश हाल स्वयं प्राकृत का विद्वान कवि था। उसने 'गाथा सप्तशती' की रचना की। हाल की राजसभा में गुणाढ्य नामक विद्वान को आश्रय प्राप्त था, जिसने 'बृहत्कथा' नामक ग्रंथ की रचना की। एक अन्य लेखक सर्ववर्मन ने 'कातंत्र' नामक व्याकरण ग्रंथ की रचना लगभग इसी समय की थी।
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