पुमंग (Androecium)
पुष्पासन पर स्थित पुष्पीय पत्र के तीसरे चक्र को जो नर जनन अंग का कार्य करता है, पुमंग कहते हैं जबकि इसका एकक पुंकेसर (Stamen) कहलाता है। प्रत्येक पुंकेसर तीन भागों का बना होता है। इसका पहला भाग पतला तन्तु के समान होता है, जो इसे पुष्पासन से जोड़ता है, इसे पुतन्तु (Filament) कहते हैं। इसका दूसरा भाग पुतन्तु के शीर्ष पर कोष के रूप में स्थित होता है
इसे परागकोष (Anther) कहते हैं। प्रत्येक परागकोष दो पिण्डों का बना होता है, जिन्हें परागकोष पालि (Anther lobe) कहते है। दोनों परागकोष पालियाँ जिस स्थान पर जुड़ी होती हैं उसे योजी (Connective) कहते हैं, जो पुंकेसर का तीसरा भाग है। प्रत्येक परागकोष पालि दो-दो कोष्ठों में बँटी होती हैं, जिन्हें परागकोष पुटक (Pollen sac) कहते हैं। परागकोष पुटक
लघुबीजाणुधानी (Microsporangium) भी कहते हैं, क्योंकि इन्हीं के अन्दर लघु बीजाणु (Microspores) अथवा पराग कण (Pollen grains) बनते हैं। कुछ परागकोष पालियों में दो के स्थान पर एक ही पुटक पाया जाता है। ऐसी पालियों को एकपालि (Monothecous) कहते हैं, जबकि दो पुटकों वाली पालियों को द्विपालि (Dithecous) कहते हैं। अधिकांश पौधों में द्विपालिवत् (Dithecous) पुंकेसर ही पाये जाते हैं जबकि माल्वेसी कुल के कुछ पादपों में एकपालि पुंकेसर पाये जाते हैं। कुछ पुंकेसरों में परागकोषों का अभाव रहता है और यदि होता भी है तो इनमें परागकणों का निर्माण नहीं होता। ऐसे पुकेसरों को स्टैमिनोड (Staminode) पुंकेसर कहते हैं, ये होते हैं, जैसे-अमलतास तथा गुलमोहर
परागकोषों का निवेशन (Insertion of Anthers)
पुतन्तु से परागकोषों के जुड़ने के ढंग को परागकोषों का निवेशन कहते हैं। यह निम्न प्रकार का हो सकता है
1. आधारलग्न (Basifixed ) - इस निवेशन में पुतन्तु परागकोष के आधार से जुड़ा रहता है। जैसे—सरसों ।
2. पृष्ठलग्न (Dorsifixed) इस निवेशन में पुतन्तु परागकोष की पृष्ठ सतह से जुड़ा रहता है। जैसे- पैसीफ्लोरा ।
3. संलग्न (Adnate) - इस निवेशन में पुतन्तु परागकोष के पृष्ठभाग के आधार से लेकर शीर्ष भाग तक जुड़ा रहता है। जैसे-आलू, चम्पा, तम्बाकू ।
4. मुक्तदोली (Versatile) - इस निवेशन में पुतन्तु परागकोष की पृष्ठ सतह से एक बिन्दु पर इस प्रकार जुड़ा रहता है कि परागकोष पुतन्तु पर स्वतन्त्रतापूर्वक हिल डुल सकता है; जैसे- घास कुल
पुंकेसरों का संसजन (Cohesion of Stamens)
एक ही पुष्पीय चक्र के विभिन्न सदस्यों का आपस में मिलना संसजन या संलाग कहलाता है। पुंकेसरों में निम्न प्रकार के संसजन पाये जाते हैं
(A) एकसंघी (Monoadelphous )
- इस संसजन में एक पुष्प के सभी पुंकेसरों के पुतन्तु आपस में
'मिलकर एक गुच्छा बनाते हैं, जबकि उनके
परागकोप स्वतन्त्र रहते हैं। जैसे-गुड़हल के सभी पुंकेसरों के पुतन्तु आपस में
मिलकर जायांग के चारों तरफ एक पुंकेसरी नाल (Staminal tube) बनाते हैं।
(B) f}संधी (Diadelphous ) -
इस संजन में पुंकेसरों के पुतन्तु आपस में जुड़कर दो गुच्छे बनते हैं जैसे-पैपीलियोनेसी कुल के पादपों (मटर, मूंग) 10 पुंकेसर +9 के दो समूहों में पाये जाते हैं।
(C) बहुसंघी (Polyadelphous )-
 कुछ पुष्पों में पुंकेसरों के अनेक समूह रहते हैं। प्रत्येक
समूह के पुंकेसरों के पुतन्तु जुड़े, लेकिन परागकोष स्वतन्त्र होते हैं, जैसे- नीबू, सन्तरा आदि।
(D) संपरागाशय (Syngenesious) –
यह अवस्था सूर्यमुखी के बिम्ब पुष्पकों में मिलती है, जिनमें सभी 5 पुंकेसरों के परागाशय (Anthers) एक-दूसरे से पाश्र्वीय रूप से जुड़े रहते हैं, लेकिन पुतन्तु स्वतन्त्र होते हैं।
(E) युक्त परागकोशी (Synandrous ) —
इसमें पुंकेसर के दोनों भाग पुतन्तु एवं परागाशय, एक दूसरे से पूर्णतः मिलकर एक संयुक्त रचना बनाते हैं। कुम्हड़ा कुल में इसी प्रकार के पुंकेसर मिलते हैं।
पुंकेसरों का आसंजन (Adhesion of Stamens)
जब पुष्प के किसी चक्र के अवयव, किसी दूसरे चक्र से सम्बद्ध होते हैं, तब इस क्रिया को आसंजन कहते हैं। पुंकेसरों में निम्नलिखित प्रकार के आसंजन पाये जाते हैं 
1. दललग्न (Epipetalous )— जब पुष्प के पुंकेसर, दल से जुड़े होते हैं तब इस क्रिया को दललग्न कहते हैं। जैसे—कनेर ।
2. परिदललग्न (Epiphyllous ) जब पुंकेसर परिदलों से जुड़े रहते हैं, तब इन्हें परिदललग्न कहते है। जैसे-प्याज, सतावर ।
3. पुंजायांगी (Gynandrous):- जब पुंकेसर जायांग से जुड़े हों तब इन्हें पुंजायांगी कहा जाता है।
जैसे-मदार।
4. पुंजायांग स्तम्भी (Gynostegrum) – ऑर्किड जैसे कुछ पादपों में पुष्पासन अण्डाशय के आगे तक बढ़ जाता है, जिससे अवृत्ती पुंकेसर और कक्षीय पालि (Stigmatic lobes) जुड़े रहते हैं।
पुंकेसरों की
लम्बाई (Length of
Stamens) 
पुंकेसर सामान्यतः एक ही लम्बाई के होते हैं, किन्तु कुछ पुष्पों में पुकसेरों की सापेक्ष लम्बाई भिन्नता का प्रदर्शन करती है। उनकी विभिन्नता के आधार पर निम्नलिखित दो प्रकार माने गये हैं
(A) f}दीर्घी (Didynamous)—
पुंकेसरों की कुल संख्या चार होती हैं। उसमें से दो परागकोष बड़े (लम्बे) व दो छोटे हों, तो यह अवस्था f}दीर्घी कहलाती है। ये तिल, तुलसी में पाये जाते हैं।
(B) चतुदीप (Tetradynamous):-
क्रूसीफेरी कुल के पुष्पों में 6 पुंकेसर होते हैं, जिनमें से चार केन्द्रीय लम्बे (एक ही लम्बाई के) व शेष दो पाश्र्वय छोटे होते हैं, जैसे-सरसों। ऐसे पुंकेसरों को चतुर्दीर्घी कहते हैं।
(C) असमदीर्घी (Heterodynamous )—
जब किसी पुष्प के सभी पुंकेसर अलग-अलग लम्बाई के तथा
स्वतन्त्र हों तो उन्हें असमदीर्घी कहते हैं जैसे-गुलाब 
(D) निःसृत (Exerted):-
जब पुंकेसरों की लम्बाई इतनी अधिक हो कि वे दलों से ऊपर तक आ जायें तब इन्हें निःसृत पुंकेसर कहते हैं। जैसे-गुड़हल
(E) आलग्न (Inserted):—
जब पुंकेसर इतने छोटे हों कि वे दलों के नीचे तक ही रह जायें, तब इन्हें आलग्न कहते हैं, जैसे- धतूरा।
परागकोषों का स्फुटन (Dehiscence of Anthers )
जब परागकोष परिपक्व हो जाते हैं तब वे फटते हैं, जिससे परागकण इधर-उधर बिखर जाते हैं, परिपक्व परागकोषों का फटना ही परागकोष स्फुटन कहलाता है। यह निम्न प्रकार से सम्पन्न हो सकता है
1. अनुदैर्ध्य स्फुटन (Longitudinal dehiscence ) - :
परागकोषों के मध्य रेखा पर एक हल्की सी खाँच पायी जाती है जब स्फुटन इस खाँच से होता है तब इसे अनुदैर्ध्य स्फुटन कहते हैं। जब परागकोष अन्दर की ओर फटता है तब इसे अन्तर्मुखी (Introse) लेकिन जब स्फुटन बाहर की ओर होता है, तब इसे बहिर्मुखी (Extrose) स्फुटन कहते हैं।
2. अनुप्रस्थ स्फुटन (Transverse dehiscence ) —
जब परागकोष मोटाई में फटता है, तब इसे अनुप्रस्थ स्फुटन कहते हैं। जैसे—तुलसी।
3. शीर्षस्थ स्फुटन (Apical dehiscence)-
 कुछ परागकोषों के
शीर्ष पर छोटे-छोटे छिद्र पाये जाते हैं। इन छिद्रों से ही परागकण परागकोषों के
परिपक्व होने पर बाहर आते हैं, इस प्रकार के
स्फुटन को शीर्षस्थ या छिद्रित स्फुटन कहते हैं। 
4. कपाटीय स्फुटन (Valvular dehiscence)–
कुछ परागकोषों की भित्तियों पर छोटे-छोटे छिद्र पाये जाते हैं, जब परागकोषों का स्फुटन इन्हीं छिद्रों से होता है तब इन्हें कपाटीय स्फुटन कहते हैं जैसे तेजपात एवं दालचीनी।

 
 
 
 
 
 
 
 
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