दास प्रथा(Slavery)दास प्रथा का आरम्भ(start of slavery)दासों के प्रकार(Types of slaves)दासों के कार्य(Acts of slaves)दासों के प्रति व्यवहार(Treatment of slaves)

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दास प्रथा(Slavery)दास प्रथा का आरम्भ(start of slavery)दासों के प्रकार(Types of slaves)दासों के कार्य(Acts of slaves)दासों के प्रति व्यवहार(Treatment of slaves)

 


 दास प्रथा(Slavery)

वैदिक समाज में आर्यों के शत्रु के रूप में दास्य और दस्यु शब्दों का उल्लेख हुआ है।दस्यु दस्यु कौन थे, इस विषय पर विद्वान एक मत नहीं हैं। सम्भवतः दस्यु आर्य शाखा के वह भाग थे जो आयों के प्रवेश के काफी पहले भारत में आकर बस गए थे। यहाँ आने के बाद वे यहाँ की अनार्य संस्कृतियों के साथ काफी घुल-मिल गए। जब आर्य यहाँ आए तो उनका पहले से आये हुये आय (( दस्यु) के साथ रक्तरंजित संघर्ष हुआ। दस्यु आर्यों से भिन्न जीवन पद्धति अपना चुके थे और यज्ञों से विमुख थे। इसीलिए ऋग्वेद में उन्हें 'अज्रद्धान', 'अमज्ञान' तथा 'अयज्वान' कहा गया। उन्हें अनासः (असभ्य), अमानुष भी कहा गया है। उन्हें 'अनिद्र' (इन्द्र को न मानने वाले) भी कहा गया। इन दस्युओं के पास धन सम्पत्ति भी थी और आर्य इस धन-सम्पत्ति को प्राप्त करना चाहते थे अतः आर्य व दस्युओं में संघर्ष के पर्याप्त कारण विद्यमान थे। पाश्चात्य विद्वानों की यह दृढ धारणा है कि दस्यु 'अनार्य' थे और इस भू भाग में रहने वाले मूल निवासी थे जिन्होंने आर्य प्रसार का जी तोड़कर विरोध किया। उनके प्रबल विरोध से विचलित आर्यों ने देवताओं की मदद माँगी।

'दास ऋग्वेद में 'दास' का भी विवरण है। दास भी मूलतः आर्य शाखा के थे। वे आयों के भारत आगमन के कुछ समय पूर्व (लगभग 250 वर्ष पूर्व) भारत आए। आयों के आगमन और उनकी प्रसार नीति का दासों ने भी विरोध किया अतः आर्यों का इनसे भी संघर्ष हुआ। दास दस्युओं की तुलना में अधिक सभ्य थे। इनके पास पुर (दुर्ग) थे, जिनका विध्वस आर्यों ने किया। इसीलिए इन्द्र को 'पुरंदर' (दासों के पुरों का नाश करने वाला) कहा गया। आर्यों ने दासों को पराजित किया और अवसर आने पर उससे सहयोग भी प्राप्त किया। दशरथ युद्ध में सम्भवतः आयों का दास जनों ने सहयोग किया था। एक मंत्र में कहा गया कि इन्द्र ने दासों को आर्य में परिवर्तित कर दिया। अपनी शक्ति नष्ट हो जाने के बाद दास आर्यों के विश का एक भाग बन गए।

दास प्रथा का आरम्भ(start of slavery)

ऋग्वेद काल (Rigv eda period)

ऋग्वेद में दास एवं दासी दोनों का उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद में पुरुष दास कम ही रहे होंगे। दासी की वस्तु के रूप में उल्लेखित किया गया है। को दान स्पष्ट है कि आर्यों एवं दासों के मध्य धार्मिक मतभेद की दीवार थी।

आर्य वेदों की उपासना करते थे, यज्ञ करते थे, इन्द्र को अपना देवता मानते थे और वे जो यज्ञ नहीं करते थे इन्द्र-वरुण की उपासना के पक्षपाती नहीं थे, दास कहलाते थे ऐसे आर्य जन (यदु, तुर्वश) भी दास कहलाये, जो वैदिक धर्म में आस्था नहीं रखते थे।

वर्ण की दृष्टि से भी आर्य व दास भिन्न थे। आर्य गौर वर्ण के थे और दास श्याम वर्ण के थे। दासों में भी अनेक वीर पुरुषोंशम्बर, शुष्ण, वेतसु, तुम, चुमुरि, अबुर्द आदि के नाम मिलते हैं। कुछ दास तो युद्ध में मार डाले जाते थे। शेष आर्य आयों के द्वारा सेवा कार्य के लिए रख लिए जाते थे। इसलिए दास का अर्थ सेवक के रूप में होने लगा। पराजित दासों की पत्नियों को आर्यों ने उपपत्नियाँ बनाकर रख लिया। इसीलिए 'ऐतरेय ब्राह्मण' में दास्या-पुत्र का उल्लेख हुआ है।

उत्तर वैदिक काल(post vedic period)

उत्तर वैदिक काल में दास-दासियों को भेंट में प्रदान करने की प्रथा पूर्ण विकसित हो चुकी थी। दास दासियों को अपनी सेवा में रखना उच्चता का प्रतीक माना जाने लगा। उत्तर वैदिक काल में ही चतुर्वर्ण की स्थापना का कार्य पूर्ण हुआ। इस वर्ण व्यवस्था में सबसे होन वर्ण शूद्र वर्ण था। अधिकांश दास इसी वर्ग से थे। दासों का मुख्य कार्य घरेलू कामों में मदद करना था। वे विभिन्न शिल्पों में कुशल थे। दास दासियों के साथ उच्च वर्णों का व्यवहार मानवीय एवं सहृदय रहता था।

दासों के प्रकार(Types of slaves)

बौद्ध ग्रंथ 'दीर्घ निकाय' तथा 'मझिम निकाय' मे दम-दासियों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। जातकों में दासों के क्रय-विक्रय, भेंट, उपहार आदि के सन्दर्भ मिलते हैं। स्वस्थ व पुष्ट दास तथा सुन्दर दस की कीमत अधिक होती थी। दास अनेक प्रकार के

 (i) ध्वजाकृत श्रेणी (युद्ध में जीता गया राम)

(ii) सब्बं उपपांति श्रेणी (स्वेच्छा से दास कर्म स्वीकारने वाले)

(iii) अमायदाता श्रेणी (गृहज कोटि के दास-दासी से उत्पन्न पुत्र)

(iv) धनक्रीता श्रेणी क्रय-विक्रय से प्राप्त दाम)

(v) दान में प्राप्त दास (दान प्रथा से प्राप्त दास)

(vi) पैतृक दास (वंश-परम्परागत दास)

(vii) दण्ड दास (दण्ड स्वरूप दास्य कर्म स्वीकार करने के लिए बाध्य)

कौटिल्य, मनु, नारद आदि ने दासों के प्रकारों का वर्णन किया है। उपर्युक्त प्रकारों के अलावा अन्य भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भी दासत्व स्वीकार किया जाता था या दास बनाया जाता था। जीमूतवाहन के अनुसार पेट पालने के लिए व्यक्ति लिखित रूप से अपने को बेचकर दास बन जाते थे। दुर्भिक्ष के समय ऐसा होता था। हेमचन्द्र ने भी अनेक प्रकार के दास-दासियों का वर्णन किया है।

दामों का वर्णगत आधारयाज्ञवल्क्य और नारद के अनुसार वर्ण के आधार पर ही कोई व्यक्ति अपने स्वामी का दास बन सकता था। ब्राह्मण के दास अन्य वर्णों के हो सकते थे। क्षत्रिय के दास वैश्य एवं शूद्रों में से ही हो सकते थे। ब्राह्मण अपने से निम्न वर्णों का दास नहीं हो सकता था। इसी तरह क्षत्रिय या वैश्य भी अपने से निम्न वर्ण का दास नहीं बन सकते थे। कात्यायन के अनुसार ब्राह्मण अपने ही वर्ण का दास भी नहीं हो सकता था। यदि ब्राह्मण किसी ब्राह्मण का दासत्व स्वीकार करना ही चाहता था तो उसे वैदिक अध्ययन जैसे पवित्र कार्य करने का ही अधिकार था।

दासों के प्रति व्यवहार(Treatment of slaves)

दासों के साथ अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के व्यवहारे के उदाहरण 'जातक' में मिलते हैं। स्वामी के स्वभास का दासों के साथ व्यवहार पर प्रभाव पड़ता था। कभी-कभी छोटे अपराध के लिए उन्हें प्रताड़ना वा शारीरिक दण्ड भुगतना पड़ता था। कभी-कभी दासियों के साथ उनके स्वामी विवाह कर लेते थे। जातक कथाओं में उल्लेख है कि स्वाभों या उच्च वर्ण द्वारा दासी से विवाह कर लेने पर उसकी दासता समाप्त उत्पन्न पुत्र का 'दासेर' कहा जाता था। कभी-कभी स्वामी की कन्या दास के प्रेम पाश में पड़कर उससे हो जाती थी। उसकी सन्तान भी दासता से मुक्त हो जाती थी। पातंजलि के अनुसार दासी के संयोग से विवाह कर लेती थी। ऐसा विवाह निन्दनीय माना जाता था।

दासों के कार्य(Acts of slaves)

वैदिक युग से ही दासों का प्रधान कार्य आर्य या उच्च वर्णों की सेवा करना था। वर्ण व्यवस्था में शूद्रों का भी यही कार्य था। जानकों में भिन्न-भिन्न कार्य करने वाले दासों का वर्णन मिलता है। ऐसे दास 'कम्पन्तदास' (खेत, कर्मशाला या दुकान पर कार्य करने वाले, 'रजकदास' (वस्त्र धोने वाले), 'पेशकर 'दास' (वस्त्र बुनने वाले) तथा अन्य होते थे। दासों को उत्तरदायी पदों पर कम ही लगाया जाता था। अधिकतर दास कृषि एवं गृह कार्य में ही संलग्न थे। स्वामी के आदेश पर दासों को अन्य स्थानों पर श्रम कार्य के लिए जाना पड़ता था। इससे प्राप्त पारिश्रमिक को वे अपने स्वामी को सौंप देते थे। मनु, नारद आदि ने दामों से करवाये जाने वाले कार्यों का उल्लेख किया है।

दासता से मुक्ति(Emancipation from slavery)

धर्मशास्त्रों में दासता से मुक्ति के प्रावधान कर उनके साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार किया है। दास अपने स्वामी को दासता का मूल्य चुकाकर दासता से मुक्ति प्राप्त कर सकता था। बौद्ध ग्रंथ 'दीर्घ निकाय' के अनुसार दास तीन स्थितयों में मुक्त हो सकता था - (1) दास संन्यास ग्रहण कर ले, (ii) स्वामी द्वारा स्वेच्छा से मुक्त किया जाए, तथा (iii) दासता शुल्क चुका कर दास अपने स्वामी को आपतकाल में असाधारण सहायता करने पर दासता से मुक्ति पाने का अधिकारी हो जाता था। क्रय किए जाने वाले, भेंट में या दाय में प्राप्त, दास गृह में जन्म लेने वाले या आत्मविक्रीत दासो को दासता से मुक्ति नहीं मिलती थी।

सामान्यतः दासों के साथ प्राचीन भारत में अच्छा व्यवहार किया जाता था। इसीलिए मेगस्थनीज लिखता है कि भारत में कोई दास नहीं है। वास्तव में दास प्रथा का प्रचलन था परन्तु प्राचीन भारत की दास प्रथा रोम और यूनान के समान कठोर नहीं थी।

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