विवाह (Marriage)
प्राचीन धर्मशास्त्रों के अनुसार विवाह एक धार्मिक संस्कार माना जाता है। मानव जीवन के चार आश्रमों में ग्रहस्थाश्रम को अत्यधिक महत्व का तथा आधारभूत माना गया है। विवाह करना इसलिए आवश्यक माना गया कि विवाह के बाद ही धार्मिक कृत्य या यज्ञ सम्भव है। विवाह के पश्चात् ही मनुष्य पूर्ण बनता है। पुरुष के लिए पुनर्विवाह का विधान इसीलिए बनाया गया था क्योंकि वह यज्ञ अनुष्ठान का सम्मान पुनः प्राप्त कर सके। विवाह के पश्चात् पत्नी को 'सहधर्मिणी' और 'अर्धाङ्गिनी' कहा जाता है। सखियों ने विवाह को धार्मिक कर्तव्य निरूपित किया, तो अर्थशास्त्रियों ने विवाह को विदा करार दिया। विवाह को संविदा का स्वरूप देने के कारण ही कौटिल्य ने कुछ परिस्थितियों में 'मोक्ष' (तलाक) की अनुमति दी है।
विवाह के प्रयोजन(Purpose of marriage)
मनुस्मृति में विवाह के निम्नलिखित प्रयोजन बताए गए
है
(1) सन्तान की प्राप्ति विवाह का एक प्रधान प्रयोजन सन्तान प्राप्त करना है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में वर-वधु को दस सन्तान उत्पन्न करने का आशीर्वाद दिया गया है। सन्तान को ही पितृ ऋण को चुकाने में सक्षम माना गया। ऐतदेय ब्राह्मण में पुत्र को तरिणी (नौका) कहा गया है।
(2) धार्मिक कर्मकाण्डों का अनुष्ठान शास्त्रकारों ने विवाह इसीलिए आवश्यक माना क्योंकि इसके बिना धार्मिक अनुष्ठान नहीं हो सकते थे।
(3) रति-ऐन्द्रिय सुख मानव जीवन को विवाह द्वारा ही मर्यादित रूप दिया जाना सम्भव है। प्राचीन शास्त्रकारों ने धर्मानुकूल रूप से काम का सेवन आवश्यक बतलाया है।
(4) स्वर्ग की प्राप्ति प्राचीन शास्त्रकारों का मत है कि धर्म, अर्थ और काम स्वर्ग प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। मोक्ष की प्राप्ति जीवन का अंतिम लक्ष्य माना गया है।
विवाह सम्बन्ध निर्धारित करने के लिए आवश्यक गुण(Qualities required to determine marriage relationship)
प्राचीन विचारकों ने विवाह निर्धारित करने के पूर्व वर-वधू के गुण, कर्म और स्वभाव की सदृश्यता पर जोर दिया। उन्होंने वर-वधू के लिए कुल की सदश्यता, शील स्वभाव, शरीर व रूप, आयु, विद्या, धन की समानता और दोनों का सनाथ होने पर बल दिया।
वर-वधू का उत्तम कुल का होना इसलिए आवश्यक बताया गया क्योंकि कुल परिवार तथा वंश के गुण-दोष सन्तान में आते है। वर के लिए यह आवश्यक था कि वह पुंसत्व गुण से सम्पन्न हो, युवा व जनप्रिय हो। नारद स्मृति में वर्णित है कि जनता द्वारा धिक्कृत, सम्बन्धियों व मित्रो द्वारा परित्यक्त रोग से मस्त, कुष्ठ रोग से पीडित, सगोत्र, अन्ध-बधिर, नपुंसक, विजातीय व प्राजित व्यक्ति को वि
के योग्य नहीं माना। शास्त्रकारों ने वधू को विवाह के लिए निम्न लिखित गुणों से युक्त होना आवश्यक बताया है-वधू को वन्ध्या न होकर सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ होना सर्वाधिक आवश्यक था। विवाह सम्बन्ध स्थिर करने के पूर्व स्त्री के वित्त, गुण, रूप और प्रज्ञा को देखा जाता था। 'सगोत्र' व्यक्तियों में विवाह निषिद्ध था। सगोत्र के साथ एक ही 'प्रवर' के स्त्री-पुरुषों का विवाह भी निषिद्ध था। धर्म शास्त्रों द्वारा जो व्यवस्थाएँ दी गई उनका राजकुलो तथा अन्य सम्भ्रान्त वर्ग द्वारा अतिक्रमण के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं।
विवाह के प्रकार(types of marriages)
कौटिल्य के अर्थशास्त्र, स्मृति ग्रन्थों, पुराणों, धर्म सूत्रों आदि मे आठ
प्रकार के विवाहों का उल्लेख है— ब्राह्म, दैव, आर्य, प्राजापत्य, आसुर गन्धर्व, राक्षस और पैशाच
(1) ब्राह्म — इसमें कन्या का पिता ऐसे वर को कन्या दान करता था. जो जुति (वेद के ज्ञान) और शील से सम्पन्न हो।
(2) दैव इस विवाह मे घर का ऋत्विक और याज्ञिक कर्मकाण्ड में निरजात होने पर ही वधू का पिता अपनी कन्या दान करता था।
(3) आर्य इस विवाह में कन्या पिता वर से गाय या बैलों की जोड़ी उपहार में प्राप्त कर अपनी कन्या वर को देता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कन्या का पिता गौ दान करता था।
(4) प्राजापत्य इस विवाह में वर से अपेक्षा की जाती थी कि पति-पत्नी अन्त तक साथ रहे अर्थात् पति पत्नी को छोड़कर वानप्रस्थ में भी नहीं जा सकता था।
उपर्युक्त चार प्रकार के विवाह धर्मानुकूल माने गए हैं तथा इनकी पद्धति लगभग एक सी है, जिसमें वधू का पिता कन्या का दान (अर्पण) करता है। आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच विवाहों के कन्या दान का कोई स्थान नहीं था।
(5) आसुर — इस प्रकार के विवाह में वर पक्ष की ओर से कन्या को धन दिया जाता था।
(6) गान्धर्व—जब वर-वधू स्वेच्छा से विवाह सूत्र में बंध जाते थे, उसे गान्धर्व विवाह कहते थे।
(7) राक्षस राक्षस विवाह में कन्या का अपहरण कर उसके साथ विवाह किया जाता था। (8) पैशाच जब सोती हुई, मदहोश कन्या को चुपचाप उठाकर उसके साथ विवाह किया जाए. उसे पैशाच कहा जाता था।
प्राचीन भारत में स्वयंवर विवाह(Swayamvara
Marriage in Ancient India)
प्राचीन भारत में स्वयंवर विवाह की प्रथा भी प्रचलित थी धर्मसूत्र, स्मृति को और पुराणों में अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों का वर्णन मिलता है। वैदिक काल में भी अपने वर्ण से बाहर विवाह करने की प्रथा प्रचलित थी। अनुलोम विवाह वह कहलाता था जब उच्च वर्ण का पुरुष निम्न वर्ण की कन्या से विवाह करता था। प्रतिलोम विवाह में निम्न वर्ण का पुरुष उच्च वर्णं की स्त्री से विवाह करता था। अनुलोम विवाह द्वारा उत्पन्न सन्तान को मान्यता प्राप्त थी, परन्तु प्रतिलोम विवाह को बुरा माना जाता था। ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्तान को वर्ण संकर माना जाता था। सूत, मागध, वैदेह, चाण्डाल जातियाँ वर्णसंकर जातियों में आती थी।
प्राचीन भारतीय शास्त्रकारों ने विशेष दशाओं में पुरुष को बहुपत्नी विवाह की अनुमति परन्तु स्त्री को बहुपति रखने का अधिकार नहीं था। यद्यपि कुछ जातियों व कुलों में बहुपति विवाह की प्रथा विद्यमान थी परन्तु यह अपवाद स्वरूप ही था।
प्राचीन धर्मशास्त्रों में गृहस्थ को धार्मिक कृत्यों को पूर्ण करने एवं सन्तान प्राप्ति के लिए पुनर्विवाह का अधिकार था। स्त्री का पुनर्विवाह स्मृतिकारों को मान्य नहीं था। कुछ विशेष दशाओं में स्त्री को यह अधिकार कुछ विचारकों ने मान्य किया था। बौद्ध साहित्य और कोटिल्य के अर्थशास्त्र में ऐसा विधान मिलता है।
प्राचीन साहित्य में नियोग की प्रथा प्रचलित थी। नियोग को धर्म सम्मत माना गया था। नियोग से उत्पन्न सन्तान को पिता की सम्पत्ति में अधिकार मिलता था। प्राचीन विचारकों ने पति-पत्नी के मध्य विवाह को पवित्र बंधन मानते हुए उसका निर्वाह करना वांछनीय माना था परन्तु कतिपय परिस्थितियों में 'मोक्ष' या तलाक का विधान था।
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