भूमिगत जल के कार्य एवं निर्मित स्थलाकृतियाँ(THE WORK OF UNDERGROUND WATER AND
RESULTANT TOPOGRAPHIES)
भूमिगत जल (Underground Water) पृथ्वी के आन्तरिक स्थल में फैला हुआ वह जल है, जो कुओं, स्रोतों तथा ट्यूबवेल के द्वारा आसानी से ऊपर लाया जा सकता है। यह जल कहाँ से आता है? ऑर्थर होम्स महोदय ने इक्लिसियाट्स (Ecclesiates) के लेख के आधार पर कहा है कि, "All the rivers run into the sea, yet sea is not full " नदियाँ सागरों में बराबर पानी ठंड़ेलती रहती हैं, लेकिन सागर भर नहीं पाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि नदियों का जल सागरों में तथा साम का जल भूमि के नीचे होकर फिर नदियों के उद्गम स्थानों पर पहुँच जाता है। लेकिन इस विर से अधिकांश व्यक्ति सहमत नहीं होते हैं। 17वीं शताब्दी के आस-पास हेली (Helly) महोदय ने यह कहा था कि, "नदियों का जल समुद्र में पहुँचकर फिर उनके उद्गम स्थान पर नहीं पहुँच पाता, केवल वायुमण्डल में वाष्पीकरण होकर वर्षा के माध्यम से फिर वहीं पहुँच जाता है।" इस सम्बन्ध में कुछ निम्नलिखित तथ्य हैं
(1) वर्षा जल वाष्पीकरण की क्रिया
द्वारा फिर से वायुमण्डल में पहुँचता है।
(2) वर्षा जल का कुछ भाग धरातल सोख जाता है और सीधा अधोगत जल में मिल जाता है जोकि कुओं, स्रोतों, चश्मों आदि में स्पष्ट नजर आता है। 2
(3) वर्षा जल का अधिकांश भाग नदियों में बहकर चला जाता है तथा नदियों द्वारा सागरों में पहुँचता है। (4) वर्षा का जल और धरातलीय जल अधिकांशतः सीधा ही भूमि में सोख लिया जाता है. जो कि वहीं जल सतह में मिल जाता है।
(5) तालाब, झील तथा नदियों का जल भी उनकी तलहटी में से सीधे रिस-रिस कर भूमिगत जल से मिल जाता है।
(6) हिमानीकृत क्षेत्रों में हिम पिघलने के बाद जल का बहुत कुछ मात्रा सीधे धरातल में सोखकर पहुंचती रहती है।
भूमिगत जल का अर्थ(Meaning of underground water)
(MEANING OF UNDERGROUND WATER) जितना भी जल धरातल पर नदियों, झीलों तथा सागरों में नजर आता है, इसमें अधिकांश या पूर्णतः जल-राशि वर्षा से ही प्राप्त होती है। अनुमानतः प्रतिवर्ष पृथ्वी तल पर वर्षा का जैस लगभग 40" रहता है। इस सम्पूर्ण जल का योग लगभग 35,000 वन मील आँका गया है। सैलिसबरी ने यह स्पष्ट किया कि नदियाँ प्रतिवर्ष प्राप्त वर्षा जल की 6,500 घन मील जलराशि सागरों में एकत्रित कर देती है। वर्षा का 1/3 भाग लगभग 12,000 घन मील जल सीधा ही भूमि में सोख लिया जाता है और शेष का वाष्पीकरण तथा नदियों, कुओं, स्रोतों, तालाबों में प्रवेश कर जाता है। यह 1/3 जल की रिपोर्ट आई एवं शीतोष्ण प्रदेशों की है।
भूमिगत जल को प्रभावित करने वाले कारक (FACTORS THAT EFFECTED TO UNDERGROUND WATER)
भूमिगत जल काफी अथाह मात्रा में धरातल के अन्दर समाविष्ट है जिसकी प्रचुरता प्रत्येक स्थान पर भिन्न-भिन्न पायी जाती है। यह जल की राशि अन्तःस्रावण (Percolation) के माध्यम से भूमि के अन्दर पहुँचती है। यह जल सर्वत्र समान नहीं रहने के अनेक कारण हैं जो इस प्रकार हैं
(1) धरातलीय ढाल धरातलीय ढाल भूमि के अन्दर जाने वाले जल को बहुत प्रभावित करता है। यदि किसी स्थान पर धरातलीय ढाल अधिक है, तो वर्षा एवं नदी का जल तेजी से आगे बह जायेगा और यदि ढाल काफी मन्द गति में होता है तो वर्षा जल और नदियों का जल धरातल में अन्दर रिस-रिस करके आगे बहेगा।
(2) सरन्ध्र युक्त चट्टानें– वर्षा जल एवं धरातल पर बहने वाला कोई भी जल चट्टानों की सरन्ध्रता से काफी प्रभावित होता है। यदि चट्टानें सरन्ध्रयुक्त होती हैं तो किसी भी जल को आसानी से अपने अन्दर सोख लेती हैं। यदि कारण है कि बेसाल्ट एवं शैल नामक चट्टानों में पानी सोखने का अधिक गुण होता है। इसके विपरीत, अरन्ध्र चट्टानें जल को कम मात्रा में सोख पाती है। ये चट्टानें ठोस होती हैं। इन चट्टानों में पानी सोखने के बजाय पानी रोकने की शक्ति अधिक होती है। जैसे प्रेनाइट चट्टाने तथा चौक मिट्टी आदि।
(3) वर्षा होने की गति वर्षा होते समय वर्षा की गति भूमिगत जल की मात्रा पर काफी प्रभाव डालती है। क्योंकि वर्षा यदि धीमी गति से होती है तो जल धीरे-धीरे धरातल में अधिकांश मात्रा में अन्दर प्रविष्ट कर जाता है; क्योंकि जल को इस प्रकार अन्दर प्रविष्ट होने की एक आदत है। यदि वर्षा तीव्र गति से होती है, तो जल तीव्र ढाल के अनुसार तेजी से आगे बह जाता है और धरातल से बहुत कम मात्रा में भूमिगत जल प्राप्त होता है।
(4) वायु की शुष्कता वायु की शुष्कता वातावरण में अधिकांश नमी सोखने की शक्ति रखती है। यही कारण है कि शुष्क प्रदेशों में जो भी वर्षा होती है, उसका अधिकांश भाग शुष्क वातावरण मैं सोख लिया जाता है और धरातल पर कम वर्षा जल पहुँचने पर कम मात्रा में जल भूमि के अन्दर होता है।
(5) वनस्पति की स्थिति वर्षा जल एवं
धरातल पर बहता हुआ जल सघन वनस्पतियुक्त क्षेत्र मैं धीरे-धीरे रूक कर बहता है साथ
ही इस जल को धरातल में सोखने के लिए काफी समय मिलता धरातलीय जल रूककर नहीं बहता
है। तेजी से आगे चला जाता है। जल भूमि के अन्दर प्रविष्ट नहीं है। इसके विपरीत,
मैदानी भागों में
जहाँ वनस्पति का अभाव हो वहाँ पर वर्षा जल या बहता हुआ हो पाता है। प्रभावित
होता है। यदि धरातल में पहले से ही नमी की मात्रा अधिक होती है तो वर्षा जल कम
(6) मिट्टी में उपस्थित जल की मात्रा मिट्टी में उपस्थित जल की
मात्रा पर भूमिगत जल काफी में सोख पाता है। यदि धरातल में नमी की मात्रा बिल्कुल
नहीं होती तो वर्षा जल अधिका में सोखा जाता है।
(7) अन्तभौम जल की गति अन्तभौम जल की गति भूमिगत जल को काफी प्रभावित करती है। यदि अन्तभम जल जितना अधिक स्थिति में रहता है, वर्षा जल उसी के अनुसार है। धरातल के अन्दर दो तरह की चट्टानें होती है--सरन्ध्र तथा अरन्ध्र सरन्ध्र चट्टाने इसकी गति में बढ़ावा उत्पन्न करती हैं।
भूमिगत जल का संचयन या एकत्रीकरण(COLLECTION OF UNDERGROUND WATER)
यह साधारण सी बात है कि वर्षा जल या धरातलीय जल धरातल के नीचे वाली चट्टानों में के द्वारा एक अरन्ध्रयुक्त चट्टान के ऊपर एकत्रित होता रहता है। यह चट्टान जल से ओत-प्र जाती है जिसे संतृप्त चट्टान की संज्ञा दी गयी है। इस प्रकार के संतृप्त वाले भाग को संतृप्त म (Saturated zone) कहकर पुकारते हैं। इस संतृप्त मण्डल के ऊपर एकत्रित जल-तल को भूमिष्ठ जल-तल (Water Table) कहा गया है। इस प्रकार सम्पूर्ण भूमिगत जल को निम्न क्षेत्रों में विभाजित किया गया है-
(1) असंतृप्त क्षेत्र (Non-Saturated Zone ) — इस क्षेत्र में धरातल के ऊपर का जल रिस-रिसकर नीचे वाले क्षेत्रों में एकत्रित होता रहता है। इस क्षेत्र में चट्टानें काफी रन्ध्रयुक्त होती है तथा इन रन्ध्रयुक्त चट्टानों में वायु प्रवेश कर जाती है। किन्हीं परिस्थितियों में धरातल के ऊपर का जल रिस-रिसकर इस क्षेत्र में आता है, तो हवा के कारण कुछ जल इसी क्षेत्र में रुक जाता है जिसे पवन मिश्रित क्षेत्र या वातन क्षेत्र कहा गया है। इस वातन क्षेत्र का जल हमेशा नहीं रहता, अतः वायु वाष्पीकरण के माध्यम से इस जल को वायुमण्डल में पहुँचाती रहती है। वातन क्षेत्र में केवल चार महीने वर्षा का ही जल रहता है। बाकी के माह शुष्क स्थिति में बीतते हैं।
(2) संतृप्त क्षेत्र (Saturated Zone) — इस क्षेत्र से काफी मात्रा में जल रिस-रिसकर बीच वाले क्षेत्र में स्थानान्तरण करता रहता है। इस बीच वाली परत में रन्ध्रयुक्त चट्टानें जल से आत-प्रोत होगी हैं, जो कि संतृप्त क्षेत्र के नाम से पुकारी जाती हैं। इस क्षेत्र को भी पुनः दो क्षेत्रों में विभाजित कर निम्न प्रकार से वर्णित किया गया है
(i) आन्तरायिक संतृप्त क्षेत्र (Zone of Intermittent Saturation ) – यह क्षेत्र समयानुसार परिवर्तनशील रहता है क्योंकि वर्षा ऋतु में भूमिगत जल का तल पहली स्थिति में बढ़कर ऊपर आ जाता है, लेकिन वर्षा ऋतु के बाद ग्रीष्मकाल में यही भूमिगत जल का तल घटकर काफी नीचा हो जाता है। इस तरह जल-तल का ऊपर जाना और नीचे जाने वाले क्षेत्र को आन्तरायिक संतृप्त क्षेत्र (Zone of Intermittent Saturation) कहते हैं। इस क्षेत्र को वास्तविक स्थिति का पता समय-समय के अनुसार कुँआ खोदना, नल बोरिंग करना आदि वस्तुओं से पता लग जाता है।
(ii) स्थायी संतृप्त क्षेत्र (Zone of Permanent Saturation )—यह क्षेत्र आन्तरायिक संतृप्तक्षेत्र से नीचे स्थित होता है। इसमें भूमिगत जल तल सदैव एक-सा बना रहता है। परीक्षण के उपरान्त विद्वानों ने इस क्षेत्र को 2,000 से लेकर 3,000 मीटर तक की गहराई तक इसकी स्थिति का पता लगाया है। लेकिन साधारण तौर पर नल बोरिंग करने के उपरान्त इस क्षेत्र की स्थिति 1,800 मीटर की गहराई तक आँकी गयी है। वास्तविक रूप से देखा जाय तो यह क्षेत्र एक अथाह गहराई वाला क्षेत्र है जिसकी अनुलोम की प्रथा प्रचलित थी।
मे आती थी। प्राचीन भारतीय शास्त्रकारों ने विशेष दशाओं में पुरुष को बहुपत्नी विवाह स्त्री को बहुपति रखने का अधिकार नहीं था। यद्यपि कुछ जातियों व कुलों में बह ज्ञान थी परन्तु यह अपवाद स्वरूप से था। न धर्मशास्त्रों में गृहस्थ को धार्मिक कृत्यों को पूर्ण करने एवं सन्तान
वास्तविक स्थिति का पता लगाना आसान नहीं है। क्योंकि किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों से ऐसे क्षेत्रों में जल के स्रोत, दलदल, सरिताओं का प्रादुर्भाव भी पाया गया है अतः स्थायी संतृप्त क्षेत्र भूमिगत जल के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है।
(3) चट्टान प्रवाह क्षेत्र (Rock
Flowage Zone ) — यह मण्डल प्रत्येक स्थान पर नहीं पाया जाता है। साधारण तौर पर धरातलीय सतह के
नीचे 16
किमी. की गहराई पर प्रायः चट्टानों में एक-दूसरे के भार से इतना वजन एकत्रित हो
जाता है कि वे रन्ध्रयुक्त होते हुए भी अरन्ध्रयुक्त हो जाती हैं। इसी क्षेत्र की
चट्टान प्रवाह क्षेत्र कहा जाता है। भूमिगत जल ऐसी अपारगम्य चट्टानों के ऊपर
एकत्रित होता रहता है। जैसे सम्पूर्ण पृथ्वी में चट्टान प्रवाह क्षेत्र
भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के होते है जिनमें जल की मात्रा का
परिमाण भी परिवर्तनशील होता है यदि चीका मिट्टी या मृत्तिका की परत के ऊपर भूमिगत
ढाल का एकाकीरण हो गया हो तो इस चीका मिट्टी की परत से जल रिसकर नीचे अथवा किसी
दूसरी परत में नहीं जा सकता है। कहीं-कहीं ऐसा भी होता है कि इस चीका मिट्टी की
परत के नीचे दूसरी भूमिगत जल की परत और भी पायी जाती है। इस परिस्थिति में ऊपर
वाली परत के जल को 'लटका हुआ जल तल' (Perched Water Table) कहते हैं। इन दोनों परतों के बीच
कुछ शुष्क भाग भी पाया जाता है। इस शुष्क भाग में रेत, बजरी आदि मलवा भरा रहता है।
भूमिगत जल के प्राकृतिक भण्डार (Natural store of Underground water)
भूमिगत जल धरातल के आन्तरिक भागों में भ्रमण करता है और जहाँ कहीं उसे एकत्रित होने के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ मिल जाती हैं एकत्रित हो जाता है। जल प्रायः भेद्य चट्टानों में ही एकत्रित होता है। इस एकत्रित जल के अनेक भण्डार आन्तरिक भागों में मिलते हैं जिसके निम्नलिखित रूप होते हैं
पाताल तोड़ कुएँ (ARTESIAN WELLS)
पाताल तोड़ कुएँ से प्राकृतिक कुएँ होते हैं, जो आन्तरिक भाग से धरातल पर अकस्मात स्वतः ही उदय हो जाते हैं, जिनके द्वारा लगातार जल निकलता रहता है। स्रोत तथा पाताल तोड़ कुएँ में अन्तर होता है। स्रोत प्राकृतिक रूप से किसी भाग पर प्रकट हो जाते हैं जबकि पाताल तोड़ कुआँ धरातलीय मिट्टी को खोद कर तैयार किया जाता है। धरातलीय मिट्टी खोदने के बाद कुएँ से जल की प्राप्ति स्वत: ही प्राप्त होती रहती है। इस प्रकार के कुएँ को उत्स्युत कूप भी कहा जाता है।
पाताल तोड़ कुएँ के निर्माण के लिए आवश्यक दशाएँ
पाताल तोड़ कुएँ की आन्तरिक, संरचना प्रायः दो प्रकार की होती है
(1) अभिनति संरचना या उल्टी गुम्बदीय संरचना - उल्टी गुम्बदाकार संरचना वाले पाताल तोड़ कुओं में दो प्रकार की परत होती हैं। जिस परत में भमिगत जल भरा होता है उस परत के ऊपर तथा नीचे एक-एक ठोस परत भी होती है जो कि इस जल से भरी हुई परत को ऊपर तथा नीचे से दबाये रखती है। अत: जल अपनी स्थिति में दोनों तरफ से दबा हुआ रहता है। कुआँ खोदने के पश्चात् जल तेजी से धरातल के ऊपर प्रवेश करता है क्योंकि जल से भरी हुई परत को चारों ओर से दबाव (Pressure) मिलता है। इस दबाव के कारण ही जल तेजी से ऊपर की ओर भागता है।
(2) एकदिग्नत संरचना एकदिग्नत संरचना वाली धरातलीय परतें केवल नीचे की ओर अतर्लयन (Absorption) स्थिति में रहती हैं। इसमें भी भूमिगत जल से भरी हुई परत के ऊपर-नीचे ठोस पर बिछी रहती है। ये ठोस परतें जल से भरी हुई परत को वाष्पीकरण तथा अन्य परिस्थितियों से बचाती रहती हैं।
पाताल तोड़ कुएँ का उद्भव (Origin of Artesian Wells)
पाताल तोड़ कुएँ का उद्भव मानवकृत होता है न कि प्राकृतिक। ये कुएं काफी गहराई के होते हैं। इन कुओं की धरातलीय संरचना विभिन्न क्षेत्रों में विशेष प्रकार की भिन्नताएँ लिये होती है। होम्स के अनुसार, "उत्स्युत कुएं का अर्थ ऐसे कुओं से है जिनमें गहराई पर मिला जल काफी द्रव स्थैतिक तुलन दाब (Hydraulic Pressure) के कारण स्वतः धरातल के ऊपर जल की पूर्ति करते रहते हैं।"
ऐसे कुओं में कुछ आवश्यक दशाओं का होना परम आवश्यक
है जो निम्नलिखित प्रकार से है
(1) जल से भरी हुई चट्टानें— ये चट्टानें इन कुओं के लिए अति आवश्यक होती है। साथ
ही इन चट्टानों के ऊपर-नीचे ठोस चट्टानों या परत का
होना भी आवश्यक है।
(2) जलभृत (Aquifer) चट्टानें चट्टानों (Rocks) के दोनों किनारे धरातल के ऊपर निकले होने चाहिए, जिनके द्वारा धरातलीय जल की प्राप्ति एवं खोदे गये कुएँ के तल काफी द्रव स्थैतिक दाब उत्पन्न करके अधिक मात्रा में जल की प्राप्ति हो सके।
(3) सरन्ध्र चट्टान-सरन्ध्र चट्टानों में से जल कुओं अथवा अन्य किसी माध्यम से बाहर निकल जाय तो यह सतह को प्रभावित करता है।
(4) वर्षा जल - अत्यधिक मात्रा में वर्षा होने से भूमिगत जल अपने क्षेत्र में अत्यधिक मात्रा में एकत्रित होता है। उपर्युक्त सभी दशाएँ पाताल तोड़ कुएँ के लिए लन्दन बेसिन में पायी जाती है। यहाँ पर चीका नामक शैलों में जल भरा रहता है। इस चीका शैल के ऊपर-नीचे बालू की परत बिछी रहती है। इस शैल परत के ऊपर अरन्ध्र शैल अर्थात् चीका मिट्टी तथा नीचे गाल्ट चिकनी मिट्टी पायी जाती है। लन्दन के यह चीका शैल उत्तर में चिल्ट्न्स के पास तथा दक्षिण में नार्थ डाउन के पास धरातल ऊपर स्पष्ट नजर आती है जिसके द्वारा वर्षा जल आसानी से एकत्रित होता रहता है। इसी परत में के लन्दनवासियों ने 600 से 700 फीट की गहराई तक सैकड़ों कुएँ खोदे, जिनसे पूर्णतः सफलता प्राप्त हुई है। अब फिलहाल में यहाँ भूमिगत जल-तल और द्रव्य स्थैतिक दबाव लगातार कम होता जा रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि अपवाह क्षेत्र (Catchment area) से अधिकांश जल की प्राप्ति कुओं से पूरी होती है। अतः आजकल यहाँ पर जल को नल द्वारा ऊपर उठाना आसान रह गया है कमी का
परन्तु स्वा का बहुत रखने का अधिकार नहीं था। कुछ जातिया व कुला में बहुपति अनुमति विद्यमान थी परन्तु यह अपवाद स्वरूप ही था। प्राचीन धर्मशास्त्रों में गृहस्थ को धार्मिक कृत्यों को पूर्ण करने एवं सन्तान प्राप्ति के लिए।
पाताल तोड़ कुओं का वितरण एवं महत्व(IMPORTANCE AND DISTRIBUTION OF THE ARTESIAN WELLS)
पाताल तोड़ कुओं का विश्व में सर्वाधिक वितरण क्षेत्र ऑस्ट्रेलिया है जो कि 6,00,000 वर्ग मील क्षेत्र में स्थित क्वीन्सलैण्ड, न्यू साउथ वेल्स और दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया तक सीमित हैं। विश्व में द्वितीय स्थान लन्दन बेसिन का है। यहाँ पर भी पाताल तोड़ कुएँ काफी संख्या में पाये जाते हैं। यहाँ का भूमिगत जल क्षेत्र जलभरा (Aquifer) नाम से जाना जाता है जिसके ऊपर चौका नामक शैल तथा नीचे गाल्ट चीका की परत पायी जाती है। इस परत के ऊपर-नीचे ठोस बालू की परत भी विद्यमान रहती है। पाताल तोड़ कुओं के लिए भारत का तरहाई क्षेत्र प्रसिद्ध है। इसी तरह सोवियत रूस में
भी मास्को बेसिन पाताल तोड़ कुओं के लिए अति हितकर है। महत्व की दृष्टि से पाताल तोड़ कुएँ मानव के लिए अति सहायक सिद्ध हुए हैं। यदि मरुद्यान क्षेत्रों में इस प्रकार के पाताल तोड़ कुआँ निकलते हैं तो वहाँ की प्राकृतिक वनस्पति अपने जीवन काल को हमेशा के लिए जीवित समझने लगती है।
यूरोपीयन रूस का मध्यवर्ती भाग तो पाताल तोड़ कुओं के लिए अति सहायक सिद्ध हुआ है, क्योंकि यहाँ के गाँवों तथा नगरों की वर्तमान उन्नति इन्हीं के कारण है। यही हाल उत्तरी यूकेन क्षेत्र के नीपर, नीस्टर तथा डोनेट्स क्षेत्रों का है। अफ्रीका के सहारा क्षेत्र में पाये जाने वाले मरुद्यान इन्हीं पाताल तोड़ कुओं का प्रतिफल है।
स्रोते
(SPRINGS)
भूमिगत जल प्राकृतिक रूप से स्वतः धरातल के ऊपर दिखायी देने लगता है, स्रोत कहलाता
है। स्रोतों का उदय होना वहाँ धरातलीय आन्तरिक संरचना पर आधारित रहता है।
इनकी स्थिति एवं रचनाएँ धरातल के अन्दर भिन्न-भिन्न
प्रकार की होती है। स्रोतों में भी जल की पूर्ति पारगम्य चट्टानों के बाद अपारगम्य
चट्टानों में पायी जाती है। मुख्य रूप से स्रोते दो प्रकार के होते हैं-
(1) स्थायी
(2) अस्थायी।
स्रोतों के प्रकार (Kind of Springs)
(अ) स्रोतों से निकलने वाले जल के आधार पर इनको
निम्नलिखित भागों में बाँटा गया हूँ
(1) ठण्डे जल के स्रोते (Cold Water Springs) - धरातल पर ठण्डे जल के स्रोतों को अधिकता रहती है। इनमें जल अधिकतर वर्षा द्वारा प्राप्त होता है। कम गहराई होने के कारण त का जल ठण्डा रहता है।
(2) गर्म जल के स्रोते (Hot Water Springs)— संसार में गर्म जल के स्रोतों की संख्या कम पायी जाती है। वैसे यह अधिकांशतः ज्वालामुखी पर्वतों पर ही पाये जाते हैं। लेकिन कहीं-कहीं विना ज्वालामुखी पर्वतों पर भी पाये जाते हैं। क्योंकि इनका जल अधिक गहराई से प्राप्त होता है, अतः भू-गर्भ से प्राप्त जल स्वतः ही गर्म होना चाहिए। भारत में इस प्रकार के स्रोते कश्मीर, उत्तर प्रदेश, सिक्किम, पंजाब तथा बिहार आदि राज्यों में पाये जाते हैं।
(3) खनिज जलयुक्त स्रोते (Mineral Water Springs) - खनिज युक्त जल में लवण, अम्लीय क्षारीय आदि विविधताएँ होती हैं। इन स्रोतों में अधिकांशतः गन्धक जलयुक्त स्रोते होते हैं. जोकि अधिक लवणयुक्त होते हैं। इन स्रोतों में चर्म रोग का व्यक्ति यदि स्नान कर ले तो वह स्वस्थ हो जाता है क्योंकि इनमें औषधि का गुण पाया जाता है। भारत में इस प्रकार के स्रोते उड़ीसा में आतारी, उत्तर प्रदेश में सहस्त्र धारा, राजस्थान में तिलस्मा और मध्य प्रदेश में छिन्दवाड़ा आदि मुख्य है। संयुक्त राज्य अमेरिका के कार्ल्सवाद तथा साराटोमा आदि खनिज जल युक्त स्रोते भी महत्त्वपूर्ण है।
(ब) भूगर्भिक रचना एवं चट्टानों की प्रकृति के अनुसार स्रोतों को निम्नलिखित भागों मेंबाँटा गया है
(1) भ्रंशदार स्रोते (Fault Springs) – भ्रंशदार रेखा के सहारे ही इन स्रोतों का जन्म होता है। जब कभी पारगम्य चट्टानें (बालुका युक्त) अपारगम्य चट्टानों (शैल) के सहारे आकर स्थिर हो जाती हैं तो दरार के पास ही इन स्रोतों का निर्माण हो जाता है।
(2) दरारीकृत स्रोते (Fissure Springs) इस प्रकार के होते प्रायः ग्रेनाइट चट्टान में दरार पड़ जाने से ही उत्पन्न होते हैं। इन दरारीकृत स्रोतों में अधिकांशतः वर्षा का हो जल होता है। जब ग्रेनाइट चट्टानें किसी गुम्बदाकार चट्टान के पास जाकर स्थिर होती है तो वहाँ खाली स्थान तथा दरार के कारण स्रोते उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार के स्रोत स्काई द्वीप पर ब्लैक क्युइलिन्स (Black Cuillins) पर्वतों पर अधिक संख्या में पाये जाते हैं।
(3) नतिपाद और कगारपाद स्रोते (Dip Slope and Scrap Foot Springs) नतिपाद एवं कगारपद स्रोते अपनी बनावट तथा रचना के अनुसार चूने के प्रदेशों में ही पाये जाते हैं। कगारी हाल की और जहाँ अपारगम्य चीका परत के ऊपर बालुका प्रस्तर या चूने की परत मिलती है, प्रायः ऐसें स्थानों पर इनका निर्माण होता है।
(4) डाइक स्रोते (Dyke Springs) पारागम्य चट्टानों के बीच अपारगम्य चट्टानों के क जब धरातल के ऊपर स्पष्ट दिखायी देते हैं तो सन्धिस्थल स्रोत निर्मित होते हैं। इन्हें ही डाइक स्रोतों की संज्ञा दी गयी है।
(5) कार्स्ट प्रदेशीय स्रोते (Karst Region Springs) कार्स्ट प्रदेशों में पाये जाने वाले स्रोतों को इस प्रदेश के नाम से जाना जाता है। भूमिगत जल अन्दर ही अन्दर चूने की चट्टानों में छोटी-छोटी तथा बड़ी-बड़ी दरारों एवं सन्धियों का निर्माण करता रहता है। जब ये दरारें तथा सन्धियाँ धरातल पर स्पष्ट नजर आने लगती हैं तो इन्हें स्रोतों के रूप में जाना जाता है। फोण्टेन डी वेचूक्यूसी
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