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History of Hindi Literature 

हिन्दी साहित्य का इतिहास  | History of Hindi Literature |आदिकाल|भक्तिकाल | रीतिकाल | आधुनिक कालहिन्दी साहित्य का इतिहास 

History of Hindi Literature

प्रत्येक देश का साहित्य तत्कालीन समाज की चित्तवृत्ति का दर्पण होता है। चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता जाता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास को देखा जाए, तो आधुनिक युग के पूर्व का हिन्दी साहित्य का इतिहास अधिकांशतः पद्य साहित्य का इतिहास ही है। हिन्दी साहित्य का इतिहास प्रायः 1000 वर्ष पुराना है ।

    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के व्यवस्थित इतिहास का श्रीगणेश सन 933 से माना है एवं उसे चार कालों में विभक्त किया है।

    (1) आदिकाल या वीरगाथा काल (सन् 933 से 1318 तक)

    (2) पूर्व मध्यकाल या भक्तिकाल -(सन् 1318 से 1643 ई. तक)

    (3) उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल (सन् 1643 से 1843 तक)

    (4) आधुनिक काल (सन् 1843 से अब तक)


    आदिकाल या वीरगाथा काल (सन् 933 से 1318 तक)
    आदिकाल या वीरगाथा काल (सन् 933 से 1318 तक)

    1 - आदिकाल या वीरगाथा काल


    हिन्दी साहित्य में आदिकाल से ही काव्यमयी अभिव्यक्ति मिलती है। राज्याश्रय में रहने वाले भाट या चारण अपने आश्रयदाता राजाओं की वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करके अपनी राजभक्ति का परिचय देते थे। वीरकथा की प्रमुखता के कारण इस काल को वीरगाथा काल कहा जाता है। रासो ग्रंथ की प्रमुखता के कारण इस काल को रासो काल भी कहा जाता है।

    भाषा- रासो काव्य राजस्थानी डिंगल भाषा में हैं। विद्यापति ने मैथिली में पद तथा अपभ्रंश में दो ग्रंथ लिखे हैं। जैन आचार्यों तथा योगमार्गी बौद्धों ने अपभ्रंश का प्रयोग किया है। नागपंथियों की भाषा में अपभ्रंश, राजस्थानी तथा खड़ी बोली का मिश्रण है तथा अमीर खुसरो ने खड़ी बोली में रचनाएँ की हैं।

    प्रमुख रचनाएँ

    (1) पृथ्वीराज रासो   -    चंदबरदाई

    (2) विजयपाल रासो    -  नल्लसिंह भट्ट

    (3) बीसलदेव रासो    -  नरपति नाल्ह

    (4) खुमान रासो   -   दलपति विजय

    (5) परमाल रासो (आल्हाखंड) -   जगनिक

    (6) पदावली     -   विद्यापति

    (7) पहेलियाँ   -  अमीर खुसरो

    विशेषताएँ

    (1) दरबारी भाट चारणों के द्वारा अपने आश्रयदाता राजाओं की वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन ।

    (2) इतिहास की अपेक्षा कल्पना की प्रधानता ।

    (3) वीर तथा श्रृंगार रस में वर्णन ।

    (4) युद्धों का सजीव वर्णन ।

    (5)रासो काव्य की प्रधानता

    (6) डिंगल भाषा की प्रधानता ।


    पूर्व मध्यकाल या भक्तिकाल -(सन् 1318 से 1643 ई. तक)
    पूर्व मध्यकाल या भक्तिकाल -(सन् 1318 से 1643 ई. तक)

    2- पूर्व मध्यकाल या भक्तिकाल

    भक्तिकाल की समयावधि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने संवत् सन् 1318 से 1643 ई. तक तक की अवधि को अक्तिकाल माना है।

    नामकरण का आधार :-  इस काल में भक्त कवियों द्वारा शांत रस प्रधान भक्ति विषयक रचनाओं की अधिकता के कारण इसे भक्तिकाल कहा गया है।

    अन्य नाम :- कालक्रम के अनुसार आदिकाल और आधुनिक काल के मध्य में होने से और मध्यकाल का प्रथम भाग होने से इसे 'पूर्व मध्यकाल भी कहा जाता है।

    भक्तिकाल की विशेषताएँ :

    1. इस काल के साहित्य में भक्ति भावना की प्रधानता थी मनोभावों का प्रभाव

    काव्य पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है ।

    2 ईश्वर के 'सगुण और निर्गुण रूपों की मान्यता होने के कारण इस काल की कविता भी भक्ति धारा और निर्गुण भक्ति धारा में विभाजित हो

    3 धार्मिक चिंतन की प्रधानता के कारण इस काल के साहित्य में सामाजिक जीवन का चित्रण बहुत कम हुआ।

    4. मुसलमानों के सूफीवाद और भारतीय सिद्धा और नाथ पंथियों के प्रभाव से काव्य में की प्रतिष्ठा हुई।

    5. इस काल की कविता में भावपक्ष और कलापक्ष का सुन्दर सूर और तुलसी जैसे दिग्गज कवियों के काव्य में भावनाओं सागर तरंगित हो है।

    भक्तिकाल की प्रवृत्तियाँ

      भक्तिकाल का काव्य मुख्य रूप से दो प्रवृत्तियों के अनुरूप लिखा गया -

    (1) निर्गुण भक्ति धारा और

    (2) सगुण भक्ति धारा।

    इस धारा के कवियों परमात्मा के निराकार रूप को मानकर रूप उसकी की। धारा इस्लाम के एकेश्वरवाद एवं भारतीय दर्शन अद्वैतवाद प्रभावित है इस धारा की मुख्य दो शाखाएँ हैं- (अ) ज्ञानमार्गी शाखा, और (ब) प्रेममार्गी शाखा ।

    अ).ज्ञानमार्गी शाखा 

    1) इस शाखा कवियों ने आत्मज्ञान के माध्यम से ईश्वर के साक्षात्कार को सम्भव बताया

    2) इस शाखा कवि जात-पाँत आदि में विश्वास नहीं करते थे

    3) इस शाखा काव्य निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर बल दिया गया है

    4)प्रायः मुक्तक काव्य शैली को अपनाया गया है।

     

    () प्रेममार्गी शाखा की विशेषताएँ-

    1. इस के कवियों प्रेममार्ग के द्वारा  ईश्वर तक पहुंचने का विचार निरूपित किया ।

    2. लौलिक प्रेम कथाओं में अलौकिक (ईश्वरीय) प्रेम की अभिव्यक्ति करना कवियों की सबसे बडी़विशेषता थी

    3. इस शाखा के काव्य में श्रृंगार रस की प्रधानता है।

    4. इस शाखा के काव्य में इस्लाम और वैदिक धर्म में निहित एकेश्वरवाद के प्रति आस्था व्यक्त की गई है। ।

    (2) सगुण भक्तिधारा

    इस धारा के कवियों ने ईश्वर के सशरीर (साकार) रूप को मान्यता दी। प्रकार की भक्ति ही सहायक होती है ऐसी दार्शनिक मान्यता इन भक्त कवियों की थी। इस धारा के काव्य को भी दो शाखाओं में विभक्त किया जाता है।

    अ) राम भक्ति शाखा

    ब) कृष्ण भक्ति शाखा ।

    अ) रामभक्ति शाखा की विशेषताएँ

    (1) इस शाखा के कवियों ने भगवान विष्णु के राम अवतार को लोक रक्षक के रूप में मान्यता दी।

    2) 'दास्य भाव से भगवान राम की भक्ति पर जोर दिया।

    3) इस शाखा में प्रबंध काव्यों की प्रधानता रही।

    4) लोकमर्यादा के प्रति इस काव्य में आस्था व्यक्त की गई।

    ब) कृष्ण भक्ति शाखा की विशेषताएँ

    1) इस शाखा के कवियों ने भगवान विष्णु के कृष्ण अवतार' को 'लोकरक्षक एवं लोक रंजक रूप में स्वीकार किया।

    2) सख्य भाव की भक्ति से श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति प्रदर्शित की।

    3) इस शाखा के काव्य में श्रृंगार रस की प्रधानता है।

    4) प्राय: मुक्तक काव्य की रचना हुई है।

    5) भ्रमर गीतों की परम्परा का निर्वाह हुआ।

    भक्तिकाल के प्रमुख कवि एवं उनके काव्य ग्रंथ

     

             निर्गुण भक्तिकाल

     

    ) ज्ञानमार्गी शाखा

     कवि            काव्यग्रंथ

    1 कबीर     -    बीजक (साखी सबद, रमैनी)

    2 दादू दयाल  -    साखी, स्फुट पद

    3 रैदास      -     स्फुट पद।

    4  गुरुनानक   -     गुरुग्रंथ साहब में संग्रहीत कुछ पद

    5 सुन्दरदास    -     सुन्दर विलास

    ब)प्रेममार्गी शाखा

    1)मलिक मुहम्मद जायसी - पद्मावत अखरावट।

    2) मझन    -    मधुमालती।

    3 शेखनबी  -     ज्ञानदीप

    4) उसमान  -   चित्रावली ।

    5 कासिमशाह  - हंस जवाहर

           2.सगुण भक्ति शाखा

    अ) राम भक्ति धारा

    कवि                       काव्यग्रंथ

    1.गोस्वामी तुलसीदास        -  रामचरितमानस, विनय पत्रिका गीतावली

    2.नाभादास            -     भक्तिमाल     

    3. प्राणचन्द चौहान   -    रामायण महानाटक

    4. ह्रदयराम         -  हनुमन्नाटक

    5.स्वामी अग्रदास   -    रामध्यान मंजूरी

     

    ब) कृष्णभक्ति शाखा

     

    1.सूरदास   -  सुर सागर, साहित्य लहरी, सुर सरावली

    2.नंददास  -   नाममाला, नाममंजरी

    3.मीरा  -   नरसी जी को मायरो, गीत गोविन्द की टीका

    4.नरोत्तमदास-  - सुदामा चरित

    भक्तिकाल हिन्दी काव्य का स्वर्ण काल

     भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल कहा जाता है। इसके अनेक कारण है

    1. इस काल में महान आध्यात्मिक संतों और कबीर जायसी, सूर, तुलसी, मीरा आदि ने काव्य रचना की।

    2. इन कवियों ने आध्यात्मिक जागरण का ठोस प्रयास अपने काव्य के माध्यम से किया। यह काव्य निराश जन मानस के लिए संजीवनी बूटी सिद्ध हुआ।

    3. इस काल में भावपक्ष और कलापक्ष का सुन्दर समन्वय हुआ।

    4. इस काल में रामचरित मानस, सूरसागर, पद्मावत जैसे उत्कृष्ट काव्य ग्रन्थों की रचना हुई जो हिन्दी कविता के उच्च स्तर को प्रमाणित करते हैं। इन कारणों से भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल कहा जाता है।


    उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल (सन् 1643 से 1843 तक)
    उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल (सन् 1643 से 1843 तक)

    उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल

    सन् 1643 तक मुस्लिम राज्य पूरी तरह से अपनी जड़ें जमा चुका था। देशी राजा संघर्ष करना छोड़कर अपने-अपने महलों में विलास में लिप्त रहने लगे थे। दरबारी कवि अपने आश्रयदाताओं की प्रवृत्ति के अनुरुप श्रृंगारिक रचनाएँ कर उन्हें प्रसन्न करने लगे। कविता जनता के बीच से पुनः दरबारों में उच्च वर्ग के आश्रय में जा पहुँची। कवियों ने संस्कृत के रीतिग्रंथों के अनुकरण पर हिन्दी में भी लक्षण ग्रंथ लिखे। इन्हीं रीतिग्रंथों की अधिकता के कारण इसको रीतिकाल कहा जाता है।

    श्रृंगार रस की प्रधानता के कारण इस काल को श्रृंगार काल भी कहा जाता है। इसी प्रकार कलापक्ष की प्रधानता के कारण कला-काल । भक्तिकाल के आराध्य राधा-कृष्ण सामान्य नायक-नायिका के रूप में चित्रित किए गए।

    उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल विशेषताएँ

    (1) लक्षण ग्रंथों की प्रधानता ।

    (2) भाव की अपेक्षा कलापक्ष की प्रधानता ।

    (3) आचार्यत्व प्रदर्शन की प्रवृत्ति ।

    (4) श्रृंगार प्रियता ।

    (5) प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण ।

    (6) ऋतु वर्णन की अधिकता ।

    (7) मुक्तक रचनाएँ।

    (8) नायिका के नख-शिख वर्णन की अधिकता ।

    (9) ब्रजभाषा का प्राधान्य ।

    (10) श्रृंगार के अतिरिक्त भक्ति और वीर रस पूर्ण रचनाएँ ।

    कवि:- बिहारी, देव, घनानंद, केशवदास, चिन्तामणि, भिखारीदास, मतिराम, पद्माकर, भूषण, लाल, मान बोधा आदि ।

    आधुनिक काल (सन् 1843 से अब तक)
     आधुनिक काल (सन् 1843 से अब तक)

    आधुनिक काल

    सन् 1850 के आस-पास भारत में राष्ट्रीय चेतना, स्वतंत्रता की भावना की लहर प्रवाहित होती हुई स्पष्ट दिखाई देती है, उसी का परिणाम सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में दिखाई दिया। भारत में अंग्रेजी शिक्षा का आगमन हुआ, उसी के माध्यम से देश में पश्चिम के नवीन विचारों ने चेतना फैलाई। नये उद्योग, रेल, डाक, तार की सुविधा, मुद्रणकला के विस्तार के फलस्वरूप

    शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण पुनर्जागरण युग आया। राष्ट्रीय चेतना, स्वतंत्रता की भावना, सामाजिकता की महत्ता आदि के रूप में देश में नूतन वैचारिक जागृति का आलोक आया, जिसका प्रभाव हिन्दी साहित्य पर भी पड़ा। इस नवीन चेतनामय वातावरण में हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का उदय हुआ, जिसके प्रारंभ का श्रेय भारतेंदु हरिश्चन्द्र को जाता है।

    इस काल में सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि हिन्दी साहित्य में खड़ी बोली का प्रयोग तथा खड़ी बोली में गद्य का प्रारंभ है। आचार्य शुक्ल ने आधुनिक काल के हिन्दी साहित्य के विकास को इस प्रकार वर्गीकृत किया है

    1.     भारतेन्दु युग सन् 1850 से 1900

    2.     द्विवेदी युग - सन् 1900 से 1936

    3.      छायावादी युग - सन् 1920 से 1936

    4.      डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उसके बाद के युग को निम्नानुसार विभाजित किया है

    1.प्रगतिवादी युग

    2.प्रयोगवादी युग

    3. नई कविता का युग

    1. भारतेंदु युग

     आधुनिक काल के अंतर्गत यह हिन्दी साहित्य का प्रथम उत्थान काल था। भारतेन्दु एवं उनके सहयोगी साहित्यकारों ने हिन्दी काव्य में देशप्रेम, देशोद्वार, राष्ट्रीयता, भारत की अतीत-गरिमा, हिन्दी प्रेम आदि के नव जागृति के स्वर को लेकर पदार्पण किया। जीवन और साहित्य का संबंध घनिष्ठ हुआ। वास्तव में यह युग हिन्दी साहित्य में नवीन भाषा, नवीन विधाओं तथा नवीन भाव, विचारों का प्रयोग काल है।

    2. द्विवेदी युग 

     हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के इस द्वितीय उत्थान में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी "सरस्वती" पत्रिका के सम्पादक के रूप में

    भाषा परिष्कार एवं वैचारिक नैतिकता के प्रयासों को लेकर हिन्दी साहित्य में आए। साहित्य में विषय विविधता तथा वैचारिक उत्कर्ष आया । द्विवेदी जी की प्रेरणा से नये साहित्यकार आए। नीतिपरक, शिक्षाप्रद काव्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया। खड़ी बोली' को व्याकरण सम्मत रूप प्राप्त हुआ।

    इस युग के कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध', रामनरेश त्रिपाठी, और जगन्नाथ दास 'रत्नाकर' आदि हैं। भारत-भारती, साकेत, यशोधरा, पंचवटी, प्रियप्रवास जैसी रचनाएँ लिखी गई।

    3. छायावादी युग

    लगभग सन् 1920 के आस-पास साहित्य में विशेषतः काव्य में भाषा, भाव, विचार, शैली आदि में नवीनता की प्रवृत्ति दिखाई दी। वास्तव में यह प्रवृत्ति द्विवेदी काल के इतिवृत्तात्मकता तथा अति नैतिकता के प्रतिक्रियास्वरूप थी। सूक्ष्म मनोभावों का चित्रण प्रतीक शैली आदि काव्य में आया। लाक्षणिक प्रयोगों की प्रधानता होने कारण आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने छायावाद को लाक्षणिक प्रयोगों की शैली मात्र माना है। छायावाद में नूतन छंद विधान आया। कवियों द्वारा अबाधित रूप से स्वानुभूति की अभिव्यक्ति की गई। प्रकृति सौंदर्य का अनुपम वर्णन है। इसी समय रहस्यवादी कविताएँ भी लिखी गई तथा राष्ट्रीयता से पूर्ण कविताएँ थीं। वस्तुतः छायावाद में मानवतावाद, राष्ट्रीयवाद, अध्यात्मवाद, रहस्यवाद, स्वच्छंदतावाद एवं सौंदर्यवाद आदि प्रवृत्तियों का समन्वय है।

    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रहस्यवाद के बारे में कहा है-"चिंतन के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है, वही भावना के क्षेत्र में रहस्यवाद है। मिलन की स्थिति में आत्मा-परमात्मा का एकाकार होने के कारण रहस्यवाद की अंतिम स्थिति में अद्वैतवाद है। वास्तव में भारतीय काव्य में जहाँ निर्गुण भक्ति

    में माधुर्य भाव का समावेश होता है, उसे रहस्यवाद कहना अधिक उचित होगा। रहस्यवाद निश्चित रूप से छायावाद से पृथक है। आधुनिक काल में रहस्यवाद की रचनाएँ छायावादी कविताओं के साथ-साथ होने के कारण शुक्ल जी ने इस काल को छायावादी नाम दिया है और रहस्यवादी काव्य को इसी का एक भाग माना है।

    प्रगतिवाद

     सन् 1930 के आस-पास भारत में समाजवादी विचारधारा का सूत्रपात हुआ। छायावादी की प्रतिक्रया स्वरूप, काव्य में नई काव्यधारा का प्रारंभ हुआ। समाजोन्मुखी प्रवृत्ति का आगमन हुआ। मार्क्सवादी विचारधाराओं के प्रचार स्वरूप शोषण, आर्थिक विषमता के प्रति असंतोष दिखाई दिए। सन् 1936 में 'प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। समाजवादी विचारधारा पर आधारित 😀️😀😀

    कविताएँ लिखी जाने लगीं। राजनीति के क्षेत्र की यही समाजवादी, मार्क्सवादी विचारधारा साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिवाद के नाम से जानी गई। इस कविता में मजदूरों, किसानों, दलितों, शोषितों एवं दीन-दुखियों के प्रति सहानुभूति एवं उनके कल्याण के लिए क्रांति का आह्वान है। यथार्थवादी चित्रण एवं भावुकता के स्थान पर बौद्धिकता की प्रधानता है। पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध, शोषकों के प्रति आक्रोश है। भाषा सहज, सुबोध है।

    प्रगतिवादी कवियों में मुख्यतः सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत माखनलाल चतुर्वेदी, नागार्जुन, डॉ. राम विलास शर्मा, मुक्तिबोध आदि हैं ।

    प्रयोगवाद

    सन् 1943 में अज्ञेय द्वारा संपादित 'तार सप्तक में प्रकाशित रचनाओं में एक नई प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है, जिसे प्रयोगवाद की संज्ञा दी गई। छायावादी कवि के समान प्रयोगवादी कवि भी समाज से अलग, अछूता, पूरी तरह से आत्मोन्मुख रहता है। इसमें अस्पष्ट एवं दुरुहतापूर्ण अभिव्यक्ति

    को रचनाकार नूतन प्रयोग का नाम देकर 'शैली विद्रोह' का गौरव अनुभव करता है। इस कविता में छंद विधान, प्रतीक विधान आदि सभी में परिवर्तन एवं नूतनता की प्रवृत्ति पाई जाती है। प्रयोगवादी कवियों में शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, अज्ञेय, डॉ. राम विलास शर्मा, गजानन माधव मुक्तिबोध आदि प्रमुख हैं। 

    नई कविता

    भारतीय स्वतंत्रता के बाद जो कविताएँ लिखी गईं, उनमें कुछ और नयापन दृष्टिगोचर होता है। नूतन शिल्प विधान, नया भावबोध तथा नया प्रभाव सामर्थ्य लेकर जो कविता सामने आती है, उसमें विशिष्टता है। इसी नूतनता के कारण इसे 'नई कविता' कहते हैं। यह सामान्य मनुष्य की एक क्षण की अनुभूतियों को सशक्त करने की अभिव्यक्ति देती है।

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