विज्ञापन की भाषा
जनसंचार के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, वह साहित्यिक भाषा नहीं होती, अपितु सामान्य व्यवहार की भाषा होती है। विज्ञापन ने अपने लिए एक विशिष्ट भाषा को विकसित कर लिया है जो अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए अपने रूप को भी परिवर्तित कर लेती है। विज्ञापन का लक्ष्य उपभोक्ता तक पहुँचना होता है। अतः विज्ञापन में उपभोक्ता की आयु, लिंग-भेद, योग्यता, आर्थिक स्थिति, सामाजिक स्तर आदि को दृष्टिपथ में रखकर भाषा का प्रयोग किया जाता है।
भाषा अभिव्यक्ति का एक सबल और सशक्त माध्यम है। यह विज्ञापनदाता के संदेश को उपभोक्ता के पास लेकर जाती है। इस प्रक्रिया में भाषा दो रूपों में प्रयुक्त होती है-सम्बोधक और सम्बोधित रूप में सम्बोधक को इस बात को ध्यान में रखना होता है कि वह जिस उपभोक्ता वर्ग को सम्बोधित कर रहा है, उसे इस भाषा की जानकारी है भी अथवा नहीं। भाषा का ज्ञान होने पर संदेश सरलता से सम्प्रेषित हो जाता है। विज्ञापन में उत्पादक और खरीददार के मध्य सम्प्रेषण सीधा नहीं होता, बल्कि विज्ञापन एजेंसी के माध्यम से होता है। विज्ञापनकर्ता ऐसा संदेश सम्प्रेषित करता है जो उपभोक्ता तक लिखित, चित्रित या श्रव्य रूप में पहुँचता है। इस कार्य के लिए विज्ञापन संस्थान ऐसी भाषा का प्रयोग करता है जो सशक्त और सुझावपूर्ण हो तथा उसे प्रभावित कर सके। विज्ञापन की भाषा साहित्य, संवाद, नाटक आदि की भाषा से पूर्णतः भिन्न होती है। इस भाषा में सामान्य भाषा से विशिष्टता इसलिए होती है, क्योंकि इसमें विचार का प्रचार-प्रसार होता है। यह भाषा अपने संदेश को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए अभियात्मक के स्थान पर व्यंजनात्मक हो जाती है।
विज्ञापन भाषा का रूप
यह भाषा तीन रूपों में प्रयुक्त होती है-लिखित, वाचिक तथा मौखिक लिखित रूप में, इस भाषा का प्रमुख रूप लिखित होता है तथा माध्यम प्रेस होता है। विज्ञापन में लिखित भाषा साभिप्राय होती है। इसका उद्देश्य विज्ञापन को स्मरणीय, पठनीय, आकर्षक और क्रेता प्रेरक बनाना होता है। इसके लिए उचित शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
विज्ञापन की भाषा
का दूसरा रूप वाचिक या स्पोकन होता है। इस रूप को आकाशवाणी पर प्रचारित होने वाले
विज्ञापनों में प्रयुक्त किया जाता है। इसे भाषा का श्रव्य रूप भी कह सकते हैं। इस रूप के अन्तर्गत शब्दों
की ध्वनि का आरोह-अवरोह, पात्रानुकूलता,
संगीतमयता आदि का समन्वय होता है जो विज्ञापन
को कर्णप्रिय मोहक और आकर्षक बनाते हैं। उपर्युक्त दोनों भाषाओं का मिश्रित रूप
विज्ञापन की भाषा का तीसरा रूप (मौखिक) है। इसमें दृश्य-श्रव्य का समन्वय होता है। रेडियो पर
विज्ञापन की भाषा केवल सुनाई देती है और समाचार-पत्रों में दिखाई देती है।
दूरदर्शन या वीडियो पर यह सुनाई दिखाई के साथ चित्रित रूप में आती है। विज्ञापन
में चलचित्र होते हैं, अतः यहाँ पर
लिखित और वाचिक दो स्तर भी मिलते हैं। चित्र प्रस्तुत होता है, संवाद के प्रयोग से संदेश उच्चरित होता है तथा
उसी क्रम में लिखित संदेश भी उभरता है। चलचित्रों में भी भाषा के इसी रूप का
प्रयोग होता है। ये शब्द आहे-तिरछे, छोटे-बड़े कई रूपों में उभरते हैं।
विज्ञापन की भाषा
को सामान्यतः काव्य भाषा की कोटि में रखा जाता है, क्योंकि इसमें विशिष्ट भाव और विचार प्रस्तुत किये जाते
हैं। इसकी भाषा की संरचना भी काव्य भाषा की भाँति स्वच्छन्दतालिए होती है।
विज्ञापन की भाषा व्याकरण के नियमों से समान स्थिति में भी भाषा समरूपता नहींहोती।
यह भाषा व्याकरण के समस्त नियमों से मुक्त और काव्य-गुण दोषों से युक्त विशिष्ट
भाषा होती। है। इसमें नाटकीयता का गुण भी विद्यमान रहता है।
भाषा की संरचना
विज्ञापन की विषय-वस्तु के अनुरूप ही भाषा का निर्णय लिया जाता है। इसमें तीन आयामों-विज्ञापन क्षेत्र, विज्ञापन प्रकार, विज्ञापन शैली को दृष्टिपथ में रखकर शब्दावली का चुनाव किया जाता है। क्षेत्र के अंतर्गत जन समुदाय, जन स्वास्थ्य, विज्ञान आदि को रखा जाता है। जैसा क्षेत्र
होता है, वैसा ही भाषा का आयाम हो जाता है। व्यापार क्षेत्र में भाषा का रूप होगा-सोना लुढ़का, चाँदी सुस्त, गेहूँ में उछाल, चीनी कड़वी आदि विज्ञापन प्रकार के अंतर्गत समाचार, रेडियो, दूरदर्शन आदि आते हैं। समाचार-पत्र के लिए विज्ञापन में लिखित रूप की विशेषताएँ होंगी। दूरदर्शन के विज्ञापन में त्रिआयामी अर्थात् वाचिक, लिखित के साथ दृश्यात्मकता होगी। अंतिम दो रूपों में भाषा संवादिक, अभिनेय और भावोद्घाटक होगी। शैली के अन्तर्गत-अभिया, लक्षणा, व्यंजना का प्रयोग किया जाता है। सीधी, सपाट भाषा में अभिधा शैली होती है। बिजली बचत' का अर्थ है-बिजली उत्पादन' जैसे प्रयोग में लक्षणा का प्रयोग होता है। तीसरा आयाम व्यंजना का है, यथा मर्जी है आपकी, आखिर सिर है आपका सुरक्षा के लिए हेलमेट पहनिए, लिखित में शब्द की अर्थवत्ता को, वाचिक में भाषा के उतार-चढ़ाव को तथा मिश्रित में व्यंजनार्थक आयाम को महत्व दिया जाता है। विज्ञान की भाषा की शैली अनौचारिक होती है जो उपभोक्ता को आकर्षित करती है।
विज्ञापन की भाषा में कभी साधारण, कभी मिश्र और कभी संयुक्त वाक्यों का प्रयोग किया जाता है, कभी केवल उपवाक्यों, विशेषणपरक वाक्यों तथा क्रिया-विशेषणकारक वाक्यों से ही काम चला लिया जाता है। इसके अतिरिक्त विज्ञापन की भाषा काव्य-भाषा जैसी ही होती है। इसमें यथासम्भव तुकबंदी का प्रयोग किया जाता है। यह कभी मुहावरेदार भी हो जाती है। कहीं तुलनात्मक हो जाती है तो कहीं सूत्रात्मक, कहीं यह संकर भाषा भी हो जाती है।
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